Friday, 21 February 2025

चौरासी लाख योनियों का रहस्य

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चौरासी लाख योनियों का रहस्य!!!!!!

हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है। 

कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं। 

सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है - हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है। 

अब प्रश्न ये है कि यहाँ "योनि" का अर्थ क्या है? अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।

आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। 

अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है। 

हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है।

 मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है। 

मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है। 

विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।

एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है - नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है।

 इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे। 

महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे। 

ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है - नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो।

 इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।

हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है।

 हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है।

 स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।

पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:

जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव

अर्थात,
जलचर जीव - ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष - २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) - ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी - १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु - ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य - ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है। 

जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है। जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय - ७००००० (सात लाख)
जलकाय - ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय - ७००००० (सात लाख)
वायुकाय - ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय - १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) - १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)  
त्रि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) - ४००००० (चार लाख)

पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) - १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० + २००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००

अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था। जय ब्रह्मदेव।

Tuesday, 28 January 2025

ध्यानबिन्दु उपनिषद - ध्यानबिन्दु उपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा

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यदि पर्वत की तरह (अनेक जन्मों के सञ्चित) अनेक योजन व्यापकत्व लिए पाप समूह हों, तो भी ध्यान योग साधना द्वारा उनको नष्ट किया जाना सम्भव है, अन्य किसी साधन से उनका नाश सम्भव नहीं॥१॥

बीजाक्षर (ॐकार) से परे बिन्दु स्थित है और उसके ऊपर नाद विद्यमान है, जिसमें मनोहर शब्द-ध्वनि सुनाई पड़ती है। उस नादध्वनि के अक्षर में विलय हो जाने पर जो शब्द विहीन स्थिति होती है, वही 'परमपद' के नाम से जानी गयी है॥२॥

उस अनाहत शब्द (मेघ गर्जना की तरह प्रकृति का आदि शब्द) का जो परम कारण तत्त्व है, उससे भी परे परम कारण (निर्विशेष ब्रह्म) स्वरूप को जो योगी प्राप्त कर लेता है, उसके सब संशय नष्ट हो जाते हैं॥३॥

यदि बाल (गेहूँ आदि की बाल) के अग्रभाग अर्थात् नोक के एक लाख हिस्से किये जाएँ, (तो उसका एक सूक्ष्म भाग जीव कहलाएगा) , उसके पुन: उतने भाग अर्थात् एक लाख भाग किये जाएँ (इन सूक्ष्मतर भागों को ईश्वर कहा जायेगा) । तत्पश्चात् उस (एक लाखवें) हिस्से के भी पचास हजार हिस्से किये जाने पर जो शेष रहे, उसके भी (साक्ष्य-साक्षी आदि विशेषण के भी) क्षय हो जाने पर जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म शेष रहे, वह उस निरञ्जन (विशुद्ध) ब्रह्म की सत्ता है॥४॥

जिस प्रकार पुष्य में गन्ध, दूध में घृत, तिल में तेल तथा सोने की खान के पाषाणों में सोना प्रत्यक्ष रूप से न दिखने पर भी अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है, उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व सभी प्राणियों में निहित है। स्थिर बुद्धि से सम्पन्न मोहरहित ब्रह्मवेत्ता मणियों में पिरोये गये सूत्र की तरह आत्मा के व्यापकत्व को जानकर उसी ब्रह्म में स्थित रहते हैं॥५-६॥

जिस प्रकार तिलों में तेल और पुष्पों में गन्ध आश्रित है, उसी प्रकार पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान है॥७॥

जिस प्रकार वृक्ष अपनी सम्पूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होकर रहती है। उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (छाया स्थानीय मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है॥८॥

ॐ कार रूपी एकाक्षर ब्रह्म ही सभी मुमुक्षुओं का लक्ष्य रहा है। प्रणव के पहले अंश 'अकार' में पृथ्वी, अग्नि, ऋग्वेद, भूः तथा पितामह ब्रह्मा का लय होता है। दूसरे अंश 'उकार' में अन्तरिक्ष, यजुर्वेद, वायु, भुवः तथा जनार्दन विष्णु का लय होता है। तृतीय अंश 'मकार' में द्यौ, सूर्य, सामवेद, स्व: तथा महेश्वर का लय होता है। 'अकार' पीतवर्ण और रजोगुण से युक्त है, ‘उकार' श्वेत वर्ण और सात्त्विक गुण वाला तथा ‘मकार' कृष्णवर्ण एवं तमोगुण से युक्त है। इस प्रकार ॐकार आठ अङ्ग, चार पैर, तीन नेत्र और पाँच दैवत से युक्त है। जो व्यक्ति ॐकार (प्रणव) से अनभिज्ञ है, उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। प्रणव को धनुष, आत्मा को बाण और ब्रह्म को ही लक्ष्य कहा जाता है। बिना प्रमाद किये तन्मयतापूर्वक बाण से लक्ष्य का वेधन करना चाहिए। (इसके परिणाम स्वरूप) परावर अर्थात् ब्रह्म के सायुज्यत्व को प्राप्त कर लेने पर सभी क्रियाओं से निवृत्ति (मोक्ष की प्राप्ति) होती है ॥९-१५॥

ॐ कार से देवों की उत्पत्ति, ॐकार से स्वर की उत्पत्ति और ॐ कार से ही त्रिलोक के सभी स्थावरजंगम की उत्पत्ति हुई है॥१६॥

ॐ का ह्रस्व अंश पापों का दहन करता है, दीर्घ अंश अमृतत्वरूप अक्षय सम्पदा को प्रदान करता है तथा अर्द्धमात्रा से युक्त प्रणव मोक्षदायक है॥१७॥

तेल की अजस्र धारा की तरह, घण्टा के लम्बे निनाद के समान प्रणव के आगे ध्वनिरहित शब्द होता है, उसका ज्ञाता ही वेदवेत्ता है॥१८॥

हृदयकमल की कर्णिका के मध्य स्थिर ज्योतिशिखा के समान अंगुष्ठमात्र आकार के नित्य ॐकार रूप परमात्मा का ध्यान करे॥१९॥

इड़ा (बायीं नासिका) से वायु को भरकर उदर में स्थापित करे और देह के बीच में ज्योतिर्मय ॐ कार का ध्यान करे। पूरक, कुम्भक और रेचक को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र कहा गया है, ये प्राणायाम के देवता कहलाते हैं॥२०-२१॥

अन्त:करण और प्रणवाक्षर को नीचे और ऊपर की अरणिरूप बनाकर मंथनरूप ध्यान के अभ्यास से अग्नि की भाँति व्याप्त गूढ़तत्त्व (परमात्मा) का साक्षात्कार करे॥२२॥

प्रणव ध्वनि का, नाद सहित रेचक वायु के विलय हो जाने तक अपनी सामर्थ्यानुसार (तब तक) ध्यान करे, जब तक नाद का भली प्रकार लय नहीं हो जाता॥२३॥

गमन और आगमन में विद्यमान तथा गमनादि से रहित, करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सभी मनुष्यों के अन्त:करण में विराजमान हंसात्मक प्रणव का जो दर्शन करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं॥२४॥

जो मन त्रिगुणमय संसार के सृजन, पालन और संहार का कारण है, उसके विलय हो जाने पर विष्णु के परमपद की प्राप्ति होती है। अष्टदल और बत्तीस पंखुड़ियों से युक्त जो हृदयकमल है, उसके बीच सूर्य और सूर्य के बीच चन्द्रमा विद्यमान है॥२५-२६॥

चन्द्रमा के बीच अग्नि और अग्नि के बीच दीप्ति स्थित है। उसके बीच नानाविध रत्नों से सुसज्जित पीठस्थान है। उस पीठ के बीच निरञ्जन प्रभु वासुदेव विराजमान हैं, जो श्रीवत्स, कौस्तुभमणि एवं मणिमुक्ताओं से विशेष रूप से सुशोभित हैं। शुद्ध स्फटिक के सदृश करोड़ों चन्द्रमा की कान्ति वाले महाविष्णु का विनयान्वित होकर ध्यान करे॥२७-२९॥

पूरक द्वारा साँस अन्दर खींचते समय नाभिस्थान में प्रतिष्ठित अतसी पुष्प के समान चतुर्भुज महाविष्णु भगवान् का ध्यान करना चाहिए॥ कुम्भक द्वारा साँस भीतर रोकने के समय हृदय स्थल में कमल के आसन पर सुशोभित लालिमामय गौर वर्ण वाले चतुर्मुख पितामह ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए॥३०-३१॥

रेचक से साँस छोड़ते हुए ललाट में शुद्ध स्फटिक के सदृश श्वेत रंग के त्रिनेत्रयुक्त, निष्कल(कलारहित) , पाप संहारक भगवान् शिव का ध्यान करना चाहिए॥ नीचे की ओर पुष्पित हुआ, ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग की ओर मुख किये हुए कदली पुष्प की तरह हृदयकमल में सभी वेदों के आधारभूत भगवान् शिव अवस्थित हैं॥ सौ अरे वाले, सौ पत्ते वाले और विकसित पंखुड़ियों से युक्त हदय पद्म में सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का एक के बाद दूसरे का क्रमशः ध्यान करना चाहिए॥ सूर्य, चन्द्र और अग्नि के बोध हेतु सर्वप्रथम हृदयकमल के विकसित होने का ध्यान करे। तत्पश्चात् हृदय कमल में स्थित बीजाक्षरों को ग्रहण करके ही अचल चेतनावस्था की प्राप्ति होती है॥३२-३५॥

तीन स्थान, तीन मार्ग, त्रिविध ब्रह्म, त्रयाक्षर, त्रिमात्रा तथा अर्द्धमात्रा में जो परमात्मा स्थित है, उसके ज्ञाता ही वेद के तात्पर्य के ज्ञाता हैं॥३६॥

दीर्घ घण्टा निनाद के सदृश, तेल की अविच्छिन्न धारा की तरह तथा बिन्दु-नाद और कला से अतीत उस परम तत्त्व (ॐकार) को जो जानता है, वही वेदज्ञ है॥३७॥

जिस प्रकार मनुष्य कमलनाल से जल को धीरे-धीरे खींचते हैं, उसी प्रकार योगी योगस्थ होकर प्राणायाम द्वारा वायु को धीरे-धीरे ऊर्ध्व भूमिका में ले जाए॥३८॥

प्रणव की अर्द्धमात्रा (अव्यक्त नाद उच्चारण) को रस्सी बनाकर हृदयकमल रूपी कूप नाल (सुषुम्ना) मार्ग द्वारा जलरूपा कुण्डलिनी को भौंहों के मध्य में लय करे॥३९॥

नासिका के मूल से लेकर भौंहों के बीच में जो ललाट स्थान है, वहाँ तक अमृत स्थान जानना चाहिए, वही ब्रह्म का महान् निवास स्थान है॥४०॥

आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये छ: योग के अङ्ग कहे गये हैं॥४१॥

विश्व में जितनी जीव प्रजातियाँ हैं, उतनी ही आसनों की विधियाँ भी बतायी गई हैं, इस प्रकार के असंख्य भेदों के ज्ञाता भगवान् शंकर हैं॥४२॥

सिद्ध, भद्र, सिंह और पद्म ये चार प्रमुख आसन हैं, पहला चक्र आधार (मूलाधार) और दूसरा स्वाधिष्ठान है॥४३॥

इन दोनों के बीच में कामरूप प्रजनन स्थान है। गुदा स्थान के आधारचक्र में चतुर्दल कमल विद्यमान है। उसके बीच काम नाम से प्रख्यात प्रजनन-योनि (कुण्डलिनी शक्ति) है, जिसकी अभ्यर्थना सिद्धजन करते हैं। प्रजनन योनि के बीच पश्चिम की ओर पुरुष जननेन्द्रिय लिङ्ग है॥ मस्तक में मणि की तरह जो प्रकाश है, उसे जो जानता है वह योगवेत्ता है। तपे हुए सोने के समान वर्णवाला और तडित् की धारा की तरह विशेष प्रकाशित, अग्निमण्डल से चार अंगुल ऊपर और मेढ़ (मूत्रेन्द्रिय) से नीचे स्वसंज्ञक प्राण विद्यमान है, उसके आश्रय में स्वाधिष्ठान है॥४४-४७॥

उसके बाद स्थित स्वाधिष्ठान चक्र को मेढ़ ही कहा जाता है। जहाँ मणि के प्रकाश की तरह वायु से पूर्ण शरीर है। नाभिमण्डल में स्थित चक्र को मणिपूरक कहा गया है। वहाँ बारह दल से युक्त महाचक्र में पुण्य और पाप का नियन्त्रण रहता है॥ इस तत्त्वज्ञान को न समझ पाने तक जीवात्मा को भ्रमजाल में ही फैंसे रहना पड़ता है। मेद्र स्थान से ऊपर और नाभि से नीचे पक्षी के अण्डे की तरह कन्द का स्थान है। उसी स्थान से बहत्तर हजार नाड़ियाँ उत्पन्न होती हैं, उन हजारों नाड़ियों में बहत्तर नाड़ियाँ प्रमुख हैं॥४८-५१॥

इनमें से दस प्रमुख नाड़ियाँ प्राण का संचार करने वाली हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुसा, कुहू तथा शंखिनी॥५२-५३॥

इस नाड़ी चक्र की जानकारी योग-साधकों को होना आवश्यक है। सतत प्राण का संचार करने वाली इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ सूर्य, चन्द्र और अग्नि देवों से युक्त हैं। इड़ा नाड़ी बायीं ओर, पिङ्गला दाहिनी ओर तथा सुषुम्ना इन दोनों के बीच विद्यमान है, ये तीनों नाड़ियाँ प्राण के संचरण-मार्ग-रूपा हैं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय ये दस प्राण हैं, प्राणादि पाँच प्राण प्रख्यात हैं तथा नागादि पाँच उपप्राण कहे गये हैं॥५४-५७॥

इन हजारों नाड़ियों में प्राण जीवरूप से वास करते हैं। प्राण और अपान के वशीभूत होकर जीव ऊपरनीचे आवागमन करता रहता है॥५८॥

प्राण कभी दायें तो कभी बायें मार्ग से गमन करता है, परन्तु चञ्चल प्रकृति का होने से देखने में नहीं आता। हाथों से फेंकी हुई गेंद जैसे इधर-उधर दौड़ती है, उसी प्रकार प्राण और अपान द्वारा भली प्रकार फेंकने से जीव को कभी आराम नहीं मिल पाता। अपान और प्राण की एक दूसरे को खींचने की प्रक्रिया उसी प्रकार की है, जैसे रस्सी में आबद्ध पक्षी अपनी ओर खींच लिया जाता है। इस तत्त्व के ज्ञाता को ही योगी कहा जा सकता है। 'ह' कार ध्वनि से प्राण बाहर जाता है और 'स' कार से पुनः अन्दर प्रवेश करता है। 'हंस' 'हंस' इस प्रकार का मन्त्र जप जीव हमेशा जपता रहता है। इस अजपा-जप की संख्या दिन-रात में इक्कीस हजार छः सौ होती है। इतनी संख्या में मन्त्र जीव हमेशा जपता है। जो योगियों के लिए मोक्ष प्रदान करने वाली है, यही अजपा गायत्री कहलाती है॥५९-६३॥

इस (अजपा गायत्री) के संकल्प मात्र से व्यक्ति पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। जिस मार्ग से योग साधक सुगमता से ब्रह्मपद को प्राप्त करता है। जिसके सदृश न कोई विद्या है, न जप है और न ही कोई पुण्य, जो पहले न कभी हुआ है और न आगे कभी हो सकेगा॥ वह्रियोग द्वारा जाग्रत् होने वाली परमेश्वरी (कुण्डलिनी) उस द्वार-पथ को अपने मुँह से आच्छादित करके प्रसुप्त स्थिति में है। वह जाग्रत् किये जाने पर सुषुम्ना मार्ग से मन और प्राण वायु के साथ ऊर्ध्वगमन करती है, जैसे सुई धागे को साथ ले जाती है। योगी मुक्ति द्वार को कुण्डलिनी शक्ति द्वारा उसी प्रकार उद्घाटित करते हैं, जैसे ताली से प्रयासपूर्वक दरवाजे को खोल लिया जाता है॥६४-६८॥

सुदृढ़ रूप में पद्मासन लगाकर, दोनों हाथों को सम्पुटित करके ठोड़ी से वक्षभाग (कण्ठकूप) को दृढ़तापूर्वक दबाकर, चित्त में स्वरूप का ध्यान करते हुए बार-बार अपान वायु को ऊपर की ओर चलायमान करता हुआ और अन्दर खींची हुई प्राण वायु को नीचे छोड़ता हुआ योग साधक अतुलित कुण्डलिनी शक्ति के सामर्थ्य बोध. को प्राप्त करता है॥६९॥

जो योगसाधक पद्मासन में बैठकर नाड़ीद्वार से प्राणवायु को खींचकर, कुम्भक द्वारा उसे रोकता है। वह सुनिश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है, इसमें संदेह की गुंजायश नहीं॥७०॥

(प्राणायाम के) परिश्रम द्वारा जो स्वेदकण निकले, उन्हें अङ्गों में ही मल ले। कटु, अम्ल और नमक का परित्याग करके दुग्ध का सेवन करने वाला सुखी रहता है। इस प्रकार योगस्थ होकर अल्प आहार करने वाला ब्रह्मचारी योगी एक साल के अन्तराल में ही सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं॥७१-७२॥

ध्यानबिन्दूपनिषद् कन्द के ऊपरी भाग में स्थित कुण्डलिनी शक्ति से योग साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। सतत मूलबन्ध का अभ्यास करने से अपान और प्राण में एकीकरण होता है, मल-मूत्र के क्षीण हो जाने पर बूढ़ा व्यक्ति भी जवान हो जाता है। एड़ी भाग से योनिस्थान को दबाकर मलद्वार को संकुचित करे और अपान वायु को ऊर्ध्व की ओर खींचे, इस क्रिया को मूलबन्ध कहा गया है। उड्डियानबन्ध की विधि में कहा गया है कि जिस प्रकार बिना थका महापक्षी उड़ने की क्रिया करता है, उसी प्रकार पेट की पश्चिम 'ताण' क्रिया (पेट को पीछे की ओर सिकोड़ने) के साथ नाभि को ऊपर की ओर खींचना चाहिए ॥ ७३-७६॥

यह उड्डियान बन्ध मृत्यु के निमित्त उसी तरह है, जैसे गजराज के लिए सिंह निमित्त बनता है। जिसमें शिरोनभ (आकाश) से उत्पादित जल को नीचे आने की अपेक्षा ऊपर ही अवरुद्ध कर लिया जाता है, उसे जालन्धर बन्ध कहा गया है। इससे कर्मबन्धन और पापजन्य दु:खों का नाश होता है। जालन्धर बन्ध करते समय कण्ठ को सिकोड़ा जाता है, जिससे वायु की गति रुक जाती है और अमृत के अग्नि में गिरने की सम्भावना नहीं रहती। खेचरी मुद्रा उसे कहते हैं, जिसमें जिह्वा को उल्टाकर कपाल कुहर में प्रविष्ट किया जाए और अपनी दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच स्थिर रखा जाए। इसके सिद्ध हो जाने से निद्रा, क्षुधा, पिपासा नहीं सताती और न व्याधि एवं मृत्यु का भय ही रहता है॥७७-८०॥

जो खेचरी मुद्रा का ज्ञाता है, उसे न तो मूच्र्छा होती है, न रोग उसे कष्ट देते हैं और न ही वह कर्मों से ही लिप्त हो पाता है। खेचरी मुद्रा से जिसका चित्त आकाश में विचरण करने लगता है और जिसकी जिह्वा भी अन्तरिक्षगामिनी हो जाती है, ऐसा साधक काल के बन्धन से बँधता नहीं है। इसलिए यह 'खेचरी मुद्रा’ योगियों द्वारा प्रशंसनीय है। इस मुद्रा द्वारा जिसने तालु के छिद्र को अवरुद्ध कर दिया है, उसके द्वारा स्त्री समागम से भी वीर्य का क्षरण नहीं होता और जब तक वीर्य शरीर में विद्यमान रहता है, तब तक मौत के भय की सम्भावना ही कैसी?॥८१-८४॥

खेचरी मुद्रा में रहते हुए वीर्य का क्षरण सम्भव नहीं, फिर भी किसी तरह यदि वीर्य स्खलित होकर योनि में चला जाए, तो उसे हठशक्तिपूर्वक योनिमण्डल से पुनः ऊपर की ओर खींच लेते हैं। वह वीर्य भी सफेद और रक्त वर्ण दोनों तरह का होता है। सफेद वर्ण वाले को शुक्र और रक्त वार्ण वाले को महारज कहा गया है। मुँगे की तरह वर्ण वाला रज (योगी के) योनिस्थान में विद्यमान है और शुक्ल वीर्य चन्द्रस्थान में है, पर इन दोनों के एक होने की सम्भावना बड़ी दुर्लभ है। वीर्य को शिवरूप और रज को शक्तिरूप कहा गया है, वीर्य ही चन्द्रमा और रज ही सूर्य है॥८५-८८॥

इन दोनों के संयुक्त होने पर परम देह की प्राप्ति होती है। वायु को शक्ति से संचालित किये जाने से रज अन्तरिक्ष की ओर प्रेरित होता है और सूर्य से संयुक्त होकर दिव्य शरीर को प्राप्त करता है। शुक्लवर्ण वीर्य चन्द्रमा से और रज सूर्य से युक्त है। इन दोनों की समरसता का जो ज्ञाता है, वही योगवेत्ता है। नाड़ियों में स्थित मल के शोधन के लिए सूर्य और चन्द्र के संयोगत्व और वात, पित्त, कफ आदि रसों के भली प्रकार शोषण किये जाने को महामुद्रा कहा गया है। वक्षस्थल को ठोड़ी से और बायीं एड़ी से योनिस्थल को दबाकर, प्रसारित दाहिने पैर को हाथों से पकड़कर कुक्षियुगल को श्वास से भरकर, कुम्भक करने के बाद धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकाले। इसे योगियों द्वारा सर्वपापनाशिनी महामुद्रा कहा गया है॥८९-९३॥

अब आत्मा के सम्बन्ध में विवेचन करते हैं-हृदय स्थल में आठ दल का कमल है, उसके बीच रेखा वलय बनाकर जीवात्मा ज्योतिरूप होकर अणुमात्र स्वरूप में निवास करता है। वह सर्वज्ञाता, सब कुछ करने वाला है और सब कुछ उसी में प्रतिष्ठित है। उसका ऐसा विचार है कि सभी चरित्रों का मैं ही कर्ता, भोक्ता, सुखी, दु:खी, काना, लँगड़ा, बहरा, गूंगा, दुबला और मोटा हूँ; इस प्रकार का उसका स्वतन्त्र व्यवहार रहता है॥ उसे अष्टदल कमल का पूर्वदिशा वाला दल सफेद रंग का है, उस दल में रहते हुए धर्म और भक्तिभाव में मति (श्रद्धा) रहती है॥ जब आग्नेय दिशा के लाल रंग के दल में निवास होता है, तब मति निद्रा और आलस्य से युक्त हो जाती है॥ जब दक्षिण दिशा के काले रंग के दल में निवास होता है, तब द्वेषभाव और क्रोधी स्वभाव की मति रहती है॥ ध्यानबिन्दूपनिषद् नैऋत्य दिशा के नीले रंग वाले दल में निवास करने पर पाप कर्मों और हिंसक वृत्ति वाली मति रहती है॥ जब स्फटिक वर्ण वाले पश्चिम दल में निवास रहता है, तब क्रीड़ा और विनोद में अभिरुचि उत्पन्न हो जाती है। वायव्यकोण के माणिक्य वर्ण वाले दल में निवास होने पर घूमने-फिरने और वैराग्य भाव की ओर झुकाव होता है॥, ॥ जब उत्तर के पीले रंग के दल में निवास करता है, तो सुख-साधन और सजने-सँवरने में अभिरुचि रहती हैं॥ ईशान कोण के वैडूर्यमणि-रंग के दल में रहने पर दान-पुण्य और अनुग्रह करने में अभिरुचि जागती है॥ जब जोड़ों के सन्धिभाग में मति वास करती है, तब वात, पित्त, कफ से सम्बन्धित बड़ी बीमारियों का प्रकोप होता है॥ जब मति मध्य में रहती है, ऐसे में सब कुछ जानने, गाने, नाचने, पढ़ने और आनन्द मनाने में ध्यान रहता है॥ जब आँख श्रमशील रहती है, तो उसे विश्राम देने के उद्देश्य से पहली रेखा का आश्रय लेकर बीच में निमज्जन करती है। वह प्रथम रेखा बन्धूक पुष्प के वर्ण वाली होती है, जिससे निद्रावस्था की प्राप्ति होती है। निद्रावस्था के बीच में ही स्वप्नावस्था रहती है। स्वप्नावस्था के बीच में देखी गई, सुनी हुई और अनुमान की हुई सम्भावित बातों की कल्पना करने से जो श्रम करना पड़ता है॥ उस श्रम के निवारणार्थ द्वितीय रेखा वलय में डुबकी लगाती है। वह दूसरी रेखा वीर-बहूटी के वर्ण की है, जिससे सुषुप्ति अवस्था होती है। इस सुषुप्तावस्था में बुद्धि मात्र परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इसके पश्चात् ही परमेश्वर की प्राप्ति सम्भव है॥ तृतीय रेखा वलय बनाकर जब पद्मराग वर्ण वाली रेखा में निमज्जन किया जाता है, तब तुरीयावस्था प्राप्त होती है। इसमें बुद्धि मात्र परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इस अवस्था में बुद्धि को धीरे-धीरे सबसे पृथक् करते हुए धैर्यपूर्वक मन को आत्म-केन्द्रित करके अन्य कुछ भी विचार ने करे॥ तब प्राण और अपान में एकीकरण करके सम्पूर्ण जगत् को आत्मस्वरूप मानते हुए लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करे। तुरीयातीतावस्था प्राप्त होने पर द्वन्द्वभाव मिटते ही सभी कुछ आनन्दस्वरूप लगने लगता है। जब तक जीव में देहधारणा रहती है, तभी तक वह उसमें निवास करता है, बाद में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होती है, इसी मार्ग से मोक्ष और आत्मदर्शन दोनों की प्राप्ति सम्भव है॥ चारों मार्ग से संयुक्त महाद्वार की ओर गमन करने वाले वायु के साथ स्थिर होने पर अर्द्ध त्रिकोण में जाकर परमात्मा का साक्षात्कार होता है॥९४॥

पूर्व में कथित त्रिकोण स्थान से ऊपर पृथ्वी आदि पाँच रंग वाले तत्त्व ध्यान के योग्य हैं। इसके साथ बीज, वर्ण और स्थानयुक्त प्राणादि पाँच वायु ध्यान के योग्य हैं। 'य'कार जो नीले बादलों के समान है, वह प्राण का बीज है। 'र' कार आदित्यरूप वर्ण अग्निरूप अपान का बीज है॥९५॥

'ल' कार बन्धूक पुष्प के रंग वाला पृथ्वीरूप व्यान का बीज है। शंख के रंग वाला 'व' कार जीवरूप उदान को बीज है॥९६॥

'ह' कार स्फटिक प्रभायुक्त आकाश रूप 'समान' का बीज है। हृदय, नाभि, नासिका, कान तथा पैर का अंगुष्ठ-ये समान प्राण के स्थान हैं॥ यह समान बहत्तर हजार नाड़ियों तथा शरीर के अट्ठाईस करोड़ रोम कूपों में रहता है॥ समान और प्राण भिन्न-भिन्न नहीं, अपितु एक हैं, दोनों एक ही जीव हैं। चित्त को दृढ़ता से समाहित कर पूरक, कुम्भक, रेचक तीनों क्रियायें सम्पन्न करे। हृदयकमल के कोटर में धीरे-धीरे सबको आकर्षित करके, प्राणवायु और अपान को अवरुद्ध करते हुए प्रणव (ॐकार) का उच्चारण करे॥ कण्ठ का संकोचन करके लिङ्ग का संकोचन करे, तत्पश्चात् मूलाधार से पद्मतन्तु की तरह प्रकट होने वाली सुषुम्ना नाड़ी का संकोचन करे॥ सुषुम्ना के आश्रित वीणा-दण्ड से उठने वाला अमूर्त नाद सुनाई पड़ता है, जैसे शंखनाद आदि के मध्य (अमूर्त ध्वनि) सुनाई पड़ता है॥९७-१०२॥

व्योमरन्ध्र (आकाशरन्ध्र) से गमन करने वाला नाद मोर (पक्षी की) ध्वनि के समान रहता है, कपाल कुहर के मध्य चार द्वारों वाला बीच का स्थान है। व्योम में सूर्य के सुशोभित होने के समान ही आत्मा यहाँ प्रतिष्ठित है और ब्रह्म प्राप्ति के स्थान पर ब्रह्मरन्ध्र में कोदण्ड (धनुष) द्वय के बीच शक्ति स्थित है। जहाँ मन को तल्लीन करके अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, वहीं रत्नों से ज्योतिष्मान् नादबिन्दु महेश का स्थान है। जो पुरुष इसका ज्ञाता है, वह कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥१०३-१०५॥
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तुरीयातीतवधूत उपनिषद - अद्वैतवाद

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तुरीयातीतवधूत उपनिषद

समस्त लोकों के पितामह ब्रह्मा ने अपने पिता आदिनारायण के निकट जाकर उनसे पूछा-भगवन् तुरीयातीत अवधूत का मार्ग कौन सा है और उसकी कैसी स्थिति होती है? भगवान् नारायण ने उनसे कहा-अवधूत पथ पर चलने वाले इस लोक में दुर्लभ हैं, वे बहुत नहीं होते, यदि एकाध होता भी है, तो वह नित्य पवित्र, वैराग्य मूर्ति, ज्ञानाकार और वेद पुरुष होता है, ऐसा विद्वज्जन मानते हैं। ऐसा महापुरुष अपने चित्त को मुझ में अवस्थित रखता है और मैं उसी में स्थित होता हूँ। वह प्रारम्भ में कुटीचक होता है, तत्पश्चात् बहूदकत्व प्राप्त करके हंसत्व का अवलम्बन लेता है। हंस होकर फिर परमहंस बनता है। वह निजस्वरूप के अनुसन्धान द्वारा समस्त प्रपञ्चों के रहस्य को जानकर, दण्ड, कमण्डलु, कटिसूत्र, कौपीन, आच्छादन वस्त्र और विधिपूर्वक की जाने वाली नित्य क्रियाओं को जल में विसर्जित कर देता है और दिगम्बर होकर जीर्ण वल्कल और अजिन (मृग) चर्म के भी परिग्रह को छोड़कर समस्त प्रकार का निषेध करके (अमन्त्रवत् होकर), क्षौर कर्म (केश-कर्तन-दाढ़ी बाल आदि बनवाने), अभ्यङ्ग स्नान (उबटन लगाकर स्नान करने) तथा ऊर्ध्व पुण्डू (मस्तक पर तिलक) लगाने को भी छोड़कर, वैदिक और लौकिक कर्मों का उपसंहार करके, सर्वत्र पुण्य और अपुण्य को भी त्याग कर ज्ञान और अज्ञान को भी छोड़ देता है। वह शीत-उष्ण (सर्दी-गर्मी), सुख-दुःख, मान-अपमान को भी जीत लेता है। वह शरीर की तीनों वासनाओं सहित निन्दा-अनिन्दा, गर्व, मत्सर, दम्भ, दर्प,इच्छा, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष, अमर्ष, असूया और आत्म संरक्षण आदि को (भावाग्नि में) जलाकर, अपनी काया को मुर्दे की तरह देखता हुआ, प्रयत्न और नियम के बिना लाभ और हानि को समान करके, गोवृत्ति से (गौ की तरह) जो कुछ मिल गया, उसी में सन्तोष करके प्राण धारण किए रहता है। वह सब प्रकार से लालचरहित होकर समस्त विद्याओं और पाण्डित्य को भस्मीभूत करके, अपने वास्तविक स्वरूप को छिपाते हुए, छोटे-बड़े के भाव को (बाह्य व्यवहार में) पूर्ववत् (अज्ञानी के समान) बनाये रखता है। सर्वोत्कृष्ट सर्वात्मक रूप अद्वैत की कल्पना करके उसका यह मानना होता है कि मेरे अतिरिक्त कुछ और नहीं है। वह देव रहस्य (गुह्य) आदि धन को अपने अन्दर समेट करके (अर्थात् देव रहस्यों को अपने में गोपनीय करके) ने दुःख में उद्विग्न होता है और न सुख में प्रसन्न होता है। वह राग में स्पृहा नहीं रखता और न शुभ-अशुभ किसी बात से स्नेह रखता है। उसकी समस्त इन्द्रिय उपराम को प्राप्त हो जाती हैं। वह अपने पूर्व के आश्रम, विद्या, धर्म, प्रभाव का स्मरण नहीं करता और वर्णाश्रम आचार का परित्याग कर देता है। दिन और रात के प्रति समान भाव रखने के कारण वह कभी सोता नहीं (अर्थात् सदैव जाग्रत् रहकर सावधान रहता है)। वह सतत सर्वत्र विचरणशील रहता है। उसका शरीर मात्र अवशिष्ट रहता है (अर्थात् वह सदैव ब्रह्मरूप होकर शरीर में रहता है और शरीर द्वारा व्यवहार करता है)। जलस्थल (सरोवर-कूप आदि) उसका कमण्डलु होता है। वह सदा अनुन्मत्त रहता है, किन्तु बाहर से बालक,उन्मत्त और पिशाच आदि के समान एकाकी विचरण करता हुआ किसी से सम्भाषण नहीं करता और अपने वास्तविक रूप के ध्यान द्वारा निरालम्ब का अवलम्बन लेकर अपनी आत्मनिष्ठा की अनुकूलता से (अर्थात् आत्मनिष्ठ होकर) सब को भुला देता है। इस प्रकार से जो तुरीयातीत अवधूत के वेश वाला सतत अद्वैत निष्ठा परायण होकर 'प्रणव' भाव में निमग्न होकर शरीर का परित्याग करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, यही इस उपनिषद् का प्रतिपादन है॥

Sunday, 12 January 2025

ध्यान (मेडीटेशन) आणि त्याचे फायदे...

निरनिराळ्या व्यवसायातील व्यक्तींच्या दिनक्रमाचा विचार केल्यास असे आढळते कि त्यांच्या कामाचे स्वरूप जरी वेगळे असले, काम करण्याची क्षमता जरी वेगळी असली तरीही निद्रा अथवा झोप हि सर्वाना सारखीच आवश्यक असते. फरक फारतर कोणाला कमी अथवा ज्यास्त झोपेची गरज असते इतकाच होईल. हा सर्वमान्य नियम सुद्धा शास्त्रज्ञांनी प्रयोगाद्वारे सिद्ध केला आहे. निद्रा हा ग्लानी मधून गाढ झोपेची पायरी गाठणे व कालांतराने जागृतावस्थेत येणे एवढाच साधा सरळ प्रकार नसून त्यात निश्चित अशा ४ पायऱ्या दाखविता येतात. खास इलेक्ट्रोड्सच्या सहाय्याने पापण्यांखाली होणारी जलद हालचाल (Rapid Eye Movement, REM) संथ हालचालींपेक्षा वेगळी अशी (non-REM) दाखविता येते. REM स्तरावरील झोपेतून जागे केले तर त्या वेळी त्या व्यक्तीस स्वप्न पडत असल्याचे निदर्शनास आले आहे. म्हणजेच स्वप्ने सर्वांनाच पडतात पण सर्वांच्या लक्षात रहात नाहीत असे म्हणता येईल. झोपेचे प्रमाण काही काळ कमी झाल्यास नंतरच्या झोपेत REM झोपेचे प्रमाण वाढते. REM झोपेत असताना सातत्याने उठवून एखाद्या व्यक्तीची झोप कमी केल्यास ती व्यक्ती चिडचिडी होते व गोंधळलेली असते आणि हि स्थिती निद्रा पूर्ववत होई पर्यंत राहते हे सुद्धा प्रयोगांती सिद्ध झाले आहे.

अपूर्ण निद्रा आणि मानसिक तणाव
म्हणजेच दिवसभराच्या श्रमाचे परिमार्जन करण्यासाठी निद्रा आणि मानसिक संतुलना व स्थिरतेसाठी निद्रा व त्यातील स्वप्ने आवश्यक आहेत. परंतु कित्येक व्यक्तींना त्यांच्या स्वभावामुळे अथवा कामाच्या प्रकारामुळे पडणाऱ्या ताणाचा, निव्वळ झोपेमुळे निचरा होऊ शकत नाही. मानसिक तणावामुळे झोप येत नाही आणि अपूर्ण झोपेमुळे तणाव वाढतो असे हे रहाटगाडगे चालूच राहते व त्याचा परिणाम प्रकृती बिघडण्यात होतो. जागृतावस्था, निद्रा आणि निद्रेतील स्वप्न पडणारा काळ या व्यतिरिक्त मानसिक तणाव कमी करणारा ४था प्रकार कोणता या प्रश्नाचे उत्तर म्हणून शास्त्रज्ञांनी ध्यान अथवा मेडीटेशन कडे बोट दाखवले आहे.

मेडीटेशन किती वेळ करावे
वैद्यकीयशाखेच्या विद्यार्थ्यांसमोर Transcendental Meditation (TM) वर भाषण करीत असताना एका विद्यार्थ्याच्या ‘आमची व्यवसायाची सुरवात झाल्यावर आम्हास रोजची १५ मिनिटे मेडीटेशनसाठी देण्यास वेळ कुठून असणार’ या खोचक प्रश्नाचे स्वामी महेश योगी यांनी दिलेले उत्तर मोठे मार्मिक होते. स्वामी म्हणाले कि धनुष्याला बाण लावल्यावर प्रत्यंच्या जी मागे खेचली जाते ती तो बाण ज्यास्तीत ज्यास्त पुढे पाठविण्यासाठी. त्याच प्रमाणे TM साठी दिलेली रोजची १० ते १५ मिनिटे आपणास ज्यास्त कार्यक्षम बनवतील.

मेडीटेशन केल्याने होणारे फायदे
मेडीटेशन करण्यासाठी आपणास बैठकीची सहज स्थीती धारण करता आली पाहिजे. ‘स्थिर सुखमासनम’ म्हटल्यावर भगवान पतंजली यांची प्रतिमा डोळ्यासमोर उभी रहाते व योगाभ्यास नजरेसमोर उभा राहतो. प्रत्येक आसनात भेदात्मक शिथीलतेचे (Differential Relaxation) तंत्र आत्मसात केल्यामुळे अंशात्मक मेडीटेशन होतेच. परंतु ‘आम्ही नियमित मेडीटेशन करतो’ असे सांगणाऱ्या व्यक्ती क्वचितच भेटतात. मेडीटेशन केल्याने फायदा होतो हे निर्विवाद सत्य आहे. मेडीटेशन केल्याने मानवी शरीरावर होणाऱ्या परिणामांची छाननी शास्त्रोक्त पदधतीने, आधुनिक विज्ञानाच्या सहाय्याने झाली आहे. उदाहरणार्थ नियमित ध्यान करणाऱ्या व्यक्तीच्या हृदयाची स्पंदने, रक्तदाब, श्वासाची गती आणि लय, मेटाबोलिक रेट इत्यादी मेडीटेशन न करणाऱ्यापेक्ष्या कमी असतात. अश्या प्रकारच्या संशोधनावर आधारीत निबंध ‘लांसेट’ व ‘सायंटीफिक अमेरिकन’ या सारख्या दर्जेदार शास्त्रीय संशोधन प्रसिद्ध करणाऱ्या मासिकात प्रसिद्ध झाला आहे. सध्या मेडीटेशन वर खूप संशोधन सुद्धा चालू आहे.

अर्थात अश्या प्रकारच्या बदलामुळे आपला काय फायदा होतो हा प्रश्न येतोच. मेडीटेशन पासून मिळणारे फायदे अनेक आहेत. मेडीटेशनचा अभ्यास नियमित केल्यास अशी व्यक्ती मानसिक दृष्ट्या अधिक सक्षम होते व त्यामुळे सिगारेट व दारू या सारख्या व्यसनापासून मुक्ती मिळण्यास मदत होते अथवा या व्यसनांची तीव्रता कमी करण्यास मदत होते. मानसिक तणाव कमी झाल्यामुळे मनोकायिक रोगांचा प्रतिकार करण्याची क्षमता वाढते. अस्थमा, अल्सर यासारख्या व्याधींवर मेडीटेशनचा सुपरिणाम पहावयास मिळतो.

विद्यार्थ्यांमध्ये स्मरणशक्ती सुधारते व त्यामुळे अभ्यासातील गती वाढते. विषयाचे नीट आकलन झाल्यामुळे वरिष्ठ अधिकारी व्यक्तींच्या नोकरीतील कामाचा दर्जा उंचावतो आणि काम समाधानपूर्वक होते असे पाहण्यात आले आहे. या सर्व गोष्टी तौलनिक दृष्टीने अभ्यास करून गणिती (Statistics) पद्धतीने सिद्ध करण्यात आल्या आहेत. प्रत्यक्षात मेडीटेशन म्हणजे काय व ते कसे केले जाते ते आपण पुढे पाहू.

Saturday, 18 July 2020

स्वामी विवेकानंद सनातन मानवी धर्म संस्था धर्मजागृतीविषयक कार्य !


भारतातील अध्यात्म क्षेत्रात सामाजिक सांस्कृतिक लोक जागरती संस्था.
मिशनची उद्दिष्टे :- शांती व समतेचा संदेश सर्वत्र पोचविणे सामाजिक तथा आध्यात्मिक उपक्रम राबविणे.

संतकृपा झाली ! इमारत फळा आली !! ज्ञानदेवे रचिला पाया ! उभारिले देवालया !! नामा तयाचा किंकर ! तेणे केला हा विस्तार !! जनार्दन एकनाथ ! खांब दिला भागवत !! तुका झालासे कळस ! भजन करा सावकाश !!

'स्वामी विवेकानंद सनातन मानवी धर्म संस्था ' ही ऋषीमुनी आणि संत-महंत यांनी धर्मशास्त्र हा आधारस्तंभ मानून समाज, राष्ट्र आणि धर्म यांच्या उन्नतीचा जो मार्ग दाखवला, त्यानुसार कार्य करणारी अग्रणी संस्था आहे. 'सनातन संस्थे'चा दृष्टीकोन केवळ व्यक्तीची पारमार्थिक उन्नती होण्यापुरता मर्यादित नाही. सनातनने व्यक्तीसह समाज, राष्ट्र आणि धर्म यांच्या उत्कर्षाला प्राधान्य दिले आहे. त्यासाठी अध्यात्मप्रसार करण्यासह समाजसाहाय्य, राष्ट्ररक्षण अन् धर्मजागृती यांविषयी 'सनातन संस्था' विविध उपक्रम राबवते. 'धर्मो रक्षति रक्षित: ।', म्हणजे जो धर्माचे पालन करतो, त्याचे रक्षण धर्म म्हणजे ईश्वर करतो. धर्माचाच नाश जर झाला, तर राष्ट्रावर संकट ओढविण्यास फार काळ लागणार नाही. समाजाची धर्माबद्दलची उदासीनता दूर करण्यासाठी, धर्माचा बुरखा पांघरून समाजात शिरलेल्या दुष्प्रवृत्ती रोखण्यासाठी, तसेच समाजाला खरा धर्म समजावून सांगण्यासाठी सनातन कार्यप्रवण झाले आहे.
हिंदु धर्मजागृती सभा, पाश्चात्यांचे अंधानुकरण टाळा, देवतांचा अवमान रोखा धर्मशिक्षणविषयक फलक प्रदर्शन उत्सवातील अपप्रकार रोखा, अंधश्रद्धा निर्मूलनासाठी प्रयत्न कुंभमेळ्यामध्ये धर्भजागृती देवालय स्वच्छता, जत्रा सुनियोजन, नद्या आणि तीर्थक्षेत्रे यांच्या पावित्र्य-रक्षणाविषयी जागृती.

भारतातील अध्यात्म क्षेत्रात सामाजिक सांस्कृतिक लोक जागरती संस्था.
. . . “श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ! “
. . . “अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम् . !! “ ( नवविधा भक्ति ) 
” कीर्तन ” शब्दाचा उगम संस्कृत ” कीर्त ” (१० आ.) धातूपासून झाला आहे. प्रशंसा, गुणवर्णन , पराक्रम , लीलाचरित्र , स्तुतिपाठ करणे . अर्थात थोडक्यात सांगायचे तर परमेश्वराच्या चरित्राचे कथाकथन, दैवी गुणांचे आणि विभूतींच्या पराक्रमाचे कीर्तीगान किंवा कथाकथन म्हणजेच कीर्तन होय.
हरिकीर्तनाची परंपरा सर्व भारतात फार प्राचीन काळापासून आहे. गावा-गावातून पुराण, प्रवचन आणि कीर्तनाचे आयोजन फार पूर्वीपासून केले जाते. टाळ मृदुंगाच्या साथीत हरीनामा बरोबरच लोकशिक्षण आणि प्रबोधनाचे प्रभावी माध्यम म्हणून कीर्तन सर्वाना माहित आहेच. कीर्तनात नारदीय, वारकरी, रामदासी आणि राष्ट्रीय कीर्तन असे ठळक भेद मानले जात असले तरी कीर्तन हे मुळात ” अध्यात्म मार्गाचे एक साधन ” म्हणून आणि ” नवविधा भक्तीचा एक प्रकार ” म्हणून सर्वश्रुत आहे. पुराणातील आदर्श हरीभक्त आणि लोकप्रिय व्यक्तिमत्व असलेले देवर्षी नारद हेच कीर्तन परंपरेचे आद्य प्रवर्तक मानले जातात, इतकी ही कीर्तनाची जुनी पद्धती आहे. भारतात सर्व राज्यात कीर्तन परंपरा थोडयाफार फरकाने आहेच.महाराष्ट्रात कीर्तन, गुजरातेत संकीर्तन, उत्तरेत हरिकीर्तन , दक्षिणेत हरिकथा , आंध्रात कथाकली, तर पंजाबात गुरुद्वारात होणारे शबद-कीर्तन म्हणून कीर्तनच सादर होत असते. कथानके मुख्यतः पुराणे, रामायण, महाभारतावर व देशातील संत परंपरा आणि इतिहास यावर आधरित असतात.

Website : https://purandare.constantcontactsites.com/

Tuesday, 21 January 2020

शिवसमर्थ भेटीचे प्रेरणास्थान : संत तुकाराम

शिवसमर्थ भेटीचे प्रेरणास्थान : संत तुकाराम

१६४५ साली शिवाजी महाराजांनी हिंदवी स्वराज्याच्या स्थापनेला भगवान शंकराच्या साक्षीने प्रारंभ केला. १६४८ सालापर्यंत महाराजांनी बरीच मुसंडी मारली व आदिलशाही मुलुखातले अनेक किल्ले जिंकून स्वराज्याला जोडले. शिवाजी महाराजांचे वडील शहाजी राजे आदिलशाहीत नोकरीला होते. एकेकाळचे आदिलशाहीतील त्यांचे मित्र बाजी घोरपडे व दियानात राव देशपांडे आता शहाजीचे शत्रू झाले होते. " शहाजी आपल्या पोराला फूस लावून नवे साम्राज्य निर्माण करतो आहे " अशी तक्रार या दोघांनी आदिलशहाजवळ केली व आदिलशहाने त्यांच्यावर शहजीस अटक करण्याची कामगिरी सोपवली. अफजुलखानाच्या मदतीने त्या दोघांनी शहाजी महाराजांना पकडले व आदिलशहाच्या ताब्यात दिले. शिवाजी महाराजांच्या बंडखोरीबद्दल आदिलशहाने त्यांना जाब विचारला. परंतु शहाजी महाराजांनी “ मुलगा माझे ऐकत नाही ” असे सांगून उपरणे झटकले. परंतु शहजींच्या उत्तराने आदिलशहाचे समाधान नाही झाले. त्यांनी शहाजी महाराजांना तुरुंगात टाकले व शिवाजीस पत्र टाकून विचारले, “ बोला, काय हवंय तुम्हाला ? हिंदवी स्वराज्य की आईचं सौभाग्य ? ”

या पत्रामुळे शवाजी महाराजांच्या सर्व राजकीय हालचाली एकदम ठप्प झाल्या. कारण सुलतानानं जिजाबाई लहान असताना त्यांचे वडील, काका व दोन भाऊ एकाच वेळी मारेकर्‍यांकडून मारले होते. या इस्लाम राज्यकर्त्यांचे क्रौर्य शिवाजी महाराज पुरेपूर जाणून होते. त्यांनी आपल्या कार्याला भगवंताचे अधिष्ठान असावे म्हणून संत तुकाराम महाराजांची भेट घ्यायचे ठरवले. ही घटना १६४८ सालच्या जून महिन्यात घडली व १६५० सालच्या जानेवारी महिन्यात संत तुकाराम महाराजांनी देह ठेवला. संत तुकाराम महाराजांचा पिंड मुळातच भाक्तीप्रवण होता. त्यांचा काळ निवृत्तीकडे होता. शिवाय आपला अंत:काल जवळ आल्याची त्यांना कल्पना होती. म्हणून त्यांनी शिवाजी महाराजांनी " समर्थ रामदासांची " कास धरावी अशी प्रेमाची सूचना त्यांनी शिवाजी महाराजांना केली. त्या वेळी समर्थांचे नाव महाराजांनी प्रथमच ऐकले. समर्थ कुठे राहतात, काय करतात, त्यांचा पोशाख कसा असतो असे विचारले तेव्हा संत तुकाराम महाराजांनी त्यांना " समर्थांचे " विस्तृत वर्णन सांगितले. तुकाराम महाराजांचे दोन अभंग असून पहिल्या अभंगात त्यांनी शिवाजी महाराजांना समर्थांचा अनुग्रह घेण्याचा सल्ला दिला आहे, तर दुसर्‍या अभंगात समर्थांचे वर्णन केले
आहे. हे दोन्ही अभंग मुद्दाम पुढे देत आहे.

संत तुकाराम महाराजांचा पहिला अभंग :-

राया छत्रपती ऎकावे वचन । रामदासी मन लावी वेगी ॥ १ ॥
रामदास स्वामी सोयरा सज्जन । त्यासी तनमन अर्पी बापा ॥ २ ॥
मारुति अवतार स्वामी प्रगटला । उपदेश केला तुजलागी ॥ ३ ॥
रामनाम मंत्रतारक केवळ । झालासे शीतळ उमाकांत ॥ ४ ॥
उफराटे नाम जपता वाल्मिक । झाला पुण्यश्लोक तात्कालिक ॥ ५ ॥
तोचि बीजमंत्र वसिष्ठ उपदेश । याहुनी विशेष काय आहे ॥ ६ ॥
आता धरु नको भलत्याचा संग । राम पांडुरंग कृपा करी ॥ ७ ॥
धरु नको आशा आमुची कृपाळा । रामदासी डोळा लावी आता ॥ ८ ॥
तुझी चाड आम्हा नाही छत्रपती । आम्हीं पत्रपती त्रैलोक्याचे ॥ ९ ॥
चारी दिंशा आम्हा भिक्षेचा अधिकार । नेमिली भाकर भक्षावया ॥ १० ॥
पांडुरंगी झाली आमुची हे भेती । हातात नरोटी दिली देवे ॥ ११ ॥
आता पडु नको आमुचिये काजा । पवित्र तू राजा रामभक्त ॥ १२ ॥
विठ्ठलाचे दास केवळ भिकारी । आम्हा कधी हरी उपेक्षीना ॥ १३ ॥
शरण असावे रामदासालागी । नमन साष्टांग घाली त्यासी ॥ १४ ॥
तुका म्हणे राया तुज असो कल्याण । सद्गुरुशरण राहे बापा ॥ १५ ॥

संत तुकाराम ...

संत तुकाराम महाराजांचा दुसरा अभंग :-

हुरमुजी रंगाचा उंच मोती दाणा
रामदासी बाणा या रंगाचा ।
पीतवर्ण कांती तेज अघटित
आवाळू शोभत भृकुटी माजी ॥ १ ॥

काष्टांच्या पादुका स्वामींच्या पायात
स्मरणी हातात तुळशीची ।
रामनाम मुद्रा द्वादश हे केले
पुच्छ कळवळी कटी माजी ॥ २ ॥

कौपिन परिधान मेखला खांद्यावरी
तुंबा कुबडी करी समर्थाच्या ।
कृष्णातटा काठी जाहले दर्शन
वंदिले चरण तुका म्हणे ॥ ३ ॥

संत तुकाराम ...




संत तुकाराम महाराजांनी सांगितल्यावर समर्थांच्या दर्शनाची शिवछत्रपतींना ओढ लागली होतीच. ते चाफळ जाऊन समर्थांना भेटणार होतेच. पण योगायोगाने त्यांचा मुक्काम वाईला होता. वाईमधील समर्थशिष्यांकडून ही बातमी चाफळला पोचली. मघाशी वर्णन केल्याप्रमाणे समर्थांनी शिवाजी महाराजांना पत्र पाठवले व शिवसमर्थ भेट झाली. या चरित्रात संत तुकाराम महाराजांचा उल्लेख समर्थांच्या एवढा येत नाही. याचे कारण संत तुकाराम महाराज फार लवकर सदेह वैकुंठाला गेले. त्या वेळी शाहिस्तेखानाचा पराभव या महत्वाच्या घटना तुकाराम महाराजान्नाच्या निर्याणानंतर ९-१० वर्षांनी घडल्या. याउलट समर्थ शिवाजी महाराजांच्या निर्याणानंतर पावणेदोन वर्षांनी समाधिस्त झाले. त्यामुळे संपूर्ण शिवचरित्राचे ते साक्षीदार बनले. १६५७ साली प्रतापगडावर छत्रपतींनी तुळजाभवानीची स्थापना केली तेव्हा समर्थांनी या देवीला साकडे घातले –


“ दुष्ट संव्हारिले मागे । ऐसे उदंड ऐकितो ।
परंतु रोकडे काही । मूळ सामर्थ्य दाखवी ॥
तुझा तू वाढवी राजा । शीघ्र आम्हाचि देखता ।
मागणे एकची आता । द्यावे ते मज कारणे ॥
रामदास म्हणे माझे । सर्व सातुर बोलणे ।
क्षमावे तुळ्जे माते । इच्छा पूर्णचि तू करी ॥ ”

शिवाजी महाराजांच्या हातात सत्ता यावी व त्यांच्या मस्तकावर हिंदवी स्वराज्याचे छत्र झळकावे याची समर्थांना किती ओढ लागली होती ते या प्रार्थनेत दिसून येते.
पुण्याच्या समर्थ व्यासपीठाच्या एका समारंभात प. पू. बाबा महाराज सातारकर म्हणाले,
तुकाराम आणि समर्थ रामदास हे शिवछत्रपतींचे दोन डोळे होते ही गोष्ट कधी नाकारता येणार नाही. "



जय जय रघुवीर समर्थ !!! 

https://www.youtube.com/watch?v=PMalL0b6T8Q&feature=youtu.be&fbclid=IwAR2NZng4eq134O1dQWY6RG3pHabUqgh6U_RHNV8EHFFL8-aLD3dlvUACMiI

Monday, 9 December 2019

The relevance of Shri Vitthal (Vitthal Mahatmya)

The parabrahma or the God of Pandharpur is adored and affectionately called by his aficionados with numerous names in various course of the time, as Pandharinath, Pandurang, Pandhariraya, Vithai, Vithoba, Vithumauli, Vitthal gururao, Pandurang, Hari and so on. In any case, today this God is notable as Pandurang and Shri Vitthal. Numerous students of history and specialists attempted to discover the etymological root of "Vitthal". A few researchers accept that it is a misshaped type of the first word Vishnu. The words like Vittharas, Vitta found in different Kannad epigraphs are fundamentally the elaboration of the word Vishnu. The Great Saint writer Tukaram characterizes the word Vithoba in one of his abhangas that means 'Information' + Thoba Stands for 'structure' Thus Vithoba represents the 'type of extreme Knowledge' or 'icon of extreme Knowledge'. It is additionally accepted that Vi represents winged animal Eagle + Thoba Stands for sitting spot, hence Vithoba represents the 'God who sits on Eagle'. Vithoba is God Vishnu, remaining on a block and laying his arms on his west. It is accepted that Shri Krishna, Shri Vishnu and Shri Vithoba are for the most part various names and types of the one and a similar God. Shri Krishna is known as manifestation of Shri Vishnu which occurred on Wednesday (Shravan Vadya Ashtami) toward the finish of Dwaparyuga. Vithoba is Shri Krishna as it were. Wednesday is known as the day of Vithoba. So lovers (varkari) of Vithoba never leave Pandharpur on Wednesday even at this point. 

There is a section in Purana, the sacred text of the Vedic religion 

Vi karo vidhatay, tha karo nilakanthay | 

La karo lakshmikant, vitthalabhidhineeyame || 

Means- 

vi-Vidhata Brahmadev, 

ttha-nilakantha God Shankar, 

la-lakshmikant-Vishnu 

along these lines it prompts state that each of the three divinities Brahma, Vishnu and Mahesh are meant by one name Vitthal or are remembered for one God Vitthal. 

|| About the model (icon) of Shri Vitthal (Shri Vitthal Murtivarnan)|| 

Vitthal is generous for the oppressed and is bhaktakamkalpadrum and yogiyadurlabh. The figure is independent up of sand stone. He has top quite recently like crown on his head. It is referred to as shivlinga as it would seem that the shivlinga. Face of Shri Vitthal is long, cheeks are massive, his eyes are looking on a level plane straight. He wear's Makar kundale in his ear. A Kaustubhmni is there around his neck like jewelry. Shinke are on his back and on his shrivatsalanchhan. Angads are there on his the two arms and on his the two wrists he has Manibandhs. dya Shankaracharya composed a Pandurangashtak, where he portrays Vitthal as "Nitamba Karabhyam Druto Yena Tasmat". Shri Vitthal put his two hands on his midsection. In his correct hand he has a Kambal and in left hand he has Shankha. On his chest, there is where Bhrugurishi had put his feet. There is Vastra around his abdomen. Soga of Vastra is up to his feet. To his left side leg, there is indication of touch of a daasi. Along these lines this model is remaining on a block. 

This is the main blessed spot where one can contact Lord's feet or keep one's forhead upon Lord's feet. 

In Dwapar period, there was a ruler named Muchkunda. In the fight among Gods and devils, Gods offered him for help. Lord Muchkund battled courageously and made Gods Victorious. Divine beings were glad and approached him to look for gifts for him. He answered that he was peaceful and he required long rest. So he mentioned to secure his rest and to give him an abnormal capacity to consume, whosoever upsets his rest, to remains just by taking a gander at the guilty party. The lord was resting in one of the close by caverns. After certain years during the hour of Shri Krishna manifestation a major monster devil named kalyauvan propelled an enormous assault on Shri Krishna. The evil presence Kalyauvan was sent by another devil ruler Jarasandh. Nobody could slaughter kalyauvan by any weapon since he had uncommon power. Shri Krishna knew this. He took him admirably to the cavern where the King Muchkund was dozing. Shri Krishna tossed his mantle on the group of King Muchkund and stowed away in obscurity, so that kalyauvan would accept that resting individual is Shri Krishna as it were. Kalyauvan kicked the resting individual accepting that he is Shri Krishna. Subsequently lord Muchkund's rest was upset. He woke up and got amazingly irate on Kalyauvan. He tossed his sight on Kalyauvan which consumed Kalyauvan to cinders. This is actually what Shri Krishna was anticipating. After the sensational finish of evil presence Kalyauvan, Shri Krishna came before ruler Muchkund and clarified him all that had occurred. What's more, according to lord Muchkund demand, Shri Krishna conceded his talented intensity of sight to be proceeded with him. This King Muchkund just took resurrection as Bhakt Pundalik. He at that point rested in the spot named Dindir Van close Pandharpur. 

Shri Krishna wedded eight ladies. Rukmini, one of the eight spouses, subsequent to watching Shri Krishna sitting near another wife Radhika, so Rukmini got frustrated, went to Dindir van, and began reflecting (tapahshcharya) there. Shri Krishna likewise came in Dindir van looking for Rukmini and at last discovered her. There was another explanation additionally for which Shri Krishna landed in Dindir van and that is Shri Krishna's incredible enthusiast Bhakt-Pundalik was likewise living there, who was above all else Muchkund in his past life. Shri Krishna needed to meet him on the grounds that Shri Krishna is incredible admirer of his actual aficionado. Pundalik was dealing with his matured and sick guardians. 

After his marriage he has gotten a lady of his significant other. When he started his Kashi Pilgrimage following his significant other's desire. On their voyage to Kashi they remained in one ashram of extraordinary soothsayer Kukkut. Pundalik was exceptionally dazzled by the different attributes of the diviner Kukkut. Kukkut was having extraordinary forces. Waterway Ganges, Yamuna, Sarswati normally used to visit and serve ashram. This is the means by which the streams used to get refined their debasements which they got from miscreants washing in them. This was sufficient to connote the religio-profound intensity of soothsayer kukkut Pundalik came to realize that, the mystery of diviner kukkut's prosperity was his commitment and devotion to his folks. The Goddesses Rivers additionally lectured Pundalik the correct lifestyle. Pundalik was illuminated by that proclaiming. At that point he acknowledged to serve his folks for a mind-blowing duration at any expense. He came back to Pandharpur and began taking consideration and serving his folks.. 

By seeing pundalika's commitment to his folks, Shri Krishna was profoundly intrigued and couldn't avoid Himself from meeting Pundalik. Master Shri Krishna showed up in Pundalik's home yet Pundalik's didn't pay regard to Shri Krishna since he was occupied in serving his folks who were sick because of their mature age. Pundalik just tossed a block lying close by towards Shri Krishna for sitting or remaining as a convention and requested that he hold up there till he got free. (That block was Indra, stunned by revile by evil presence Vritasur. The bank of stream Bhima where this occurrence occurred appeared to be Dwarka. Master Shri Krishna is thought remaining there for upwards of twenty eight Yuga (times) only for every one of the individuals who are His actual lovers. The incomparable Maharashtrian holy person Namdeo says in one arati 

|| " … .to meet Pundalik genuine Parbrahma landed in Pandharpur." ||

वैदिक गणित - The Vedic maths (Sanatan Dharma)

इ॒मा मे॑ऽअग्न॒ऽइष्ट॑का धे॒नवः॑ स॒न्त्वेका॑ च॒ दश॑ च॒ दश॑ च श॒तं च॑ श॒तं च॑ स॒हस्रं॑ च स॒हस्रं॑ चा॒युतं॑ चा॒युतं॑ च नि॒युतं॑ च नि॒युतं॑ च प्र...

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