
Take up one idea. Make that one idea your life - think of it, dream of it, live on that idea. Let the brain, muscles, nerves, every part of your body, be full of that idea, and just leave every other idea alone. This is the way to success.
Friday, 21 February 2025
चौरासी लाख योनियों का रहस्य

Tuesday, 28 January 2025
ध्यानबिन्दु उपनिषद - ध्यानबिन्दु उपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा

यदि पर्वत की तरह (अनेक जन्मों के सञ्चित) अनेक योजन व्यापकत्व लिए पाप समूह हों, तो भी ध्यान योग साधना द्वारा उनको नष्ट किया जाना सम्भव है, अन्य किसी साधन से उनका नाश सम्भव नहीं॥१॥
बीजाक्षर (ॐकार) से परे बिन्दु स्थित है और उसके ऊपर नाद विद्यमान है, जिसमें मनोहर शब्द-ध्वनि सुनाई पड़ती है। उस नादध्वनि के अक्षर में विलय हो जाने पर जो शब्द विहीन स्थिति होती है, वही 'परमपद' के नाम से जानी गयी है॥२॥
उस अनाहत शब्द (मेघ गर्जना की तरह प्रकृति का आदि शब्द) का जो परम कारण तत्त्व है, उससे भी परे परम कारण (निर्विशेष ब्रह्म) स्वरूप को जो योगी प्राप्त कर लेता है, उसके सब संशय नष्ट हो जाते हैं॥३॥
यदि बाल (गेहूँ आदि की बाल) के अग्रभाग अर्थात् नोक के एक लाख हिस्से किये जाएँ, (तो उसका एक सूक्ष्म भाग जीव कहलाएगा) , उसके पुन: उतने भाग अर्थात् एक लाख भाग किये जाएँ (इन सूक्ष्मतर भागों को ईश्वर कहा जायेगा) । तत्पश्चात् उस (एक लाखवें) हिस्से के भी पचास हजार हिस्से किये जाने पर जो शेष रहे, उसके भी (साक्ष्य-साक्षी आदि विशेषण के भी) क्षय हो जाने पर जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म शेष रहे, वह उस निरञ्जन (विशुद्ध) ब्रह्म की सत्ता है॥४॥
जिस प्रकार पुष्य में गन्ध, दूध में घृत, तिल में तेल तथा सोने की खान के पाषाणों में सोना प्रत्यक्ष रूप से न दिखने पर भी अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है, उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व सभी प्राणियों में निहित है। स्थिर बुद्धि से सम्पन्न मोहरहित ब्रह्मवेत्ता मणियों में पिरोये गये सूत्र की तरह आत्मा के व्यापकत्व को जानकर उसी ब्रह्म में स्थित रहते हैं॥५-६॥
जिस प्रकार तिलों में तेल और पुष्पों में गन्ध आश्रित है, उसी प्रकार पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान है॥७॥
जिस प्रकार वृक्ष अपनी सम्पूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होकर रहती है। उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (छाया स्थानीय मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है॥८॥
ॐ कार रूपी एकाक्षर ब्रह्म ही सभी मुमुक्षुओं का लक्ष्य रहा है। प्रणव के पहले अंश 'अकार' में पृथ्वी, अग्नि, ऋग्वेद, भूः तथा पितामह ब्रह्मा का लय होता है। दूसरे अंश 'उकार' में अन्तरिक्ष, यजुर्वेद, वायु, भुवः तथा जनार्दन विष्णु का लय होता है। तृतीय अंश 'मकार' में द्यौ, सूर्य, सामवेद, स्व: तथा महेश्वर का लय होता है। 'अकार' पीतवर्ण और रजोगुण से युक्त है, ‘उकार' श्वेत वर्ण और सात्त्विक गुण वाला तथा ‘मकार' कृष्णवर्ण एवं तमोगुण से युक्त है। इस प्रकार ॐकार आठ अङ्ग, चार पैर, तीन नेत्र और पाँच दैवत से युक्त है। जो व्यक्ति ॐकार (प्रणव) से अनभिज्ञ है, उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। प्रणव को धनुष, आत्मा को बाण और ब्रह्म को ही लक्ष्य कहा जाता है। बिना प्रमाद किये तन्मयतापूर्वक बाण से लक्ष्य का वेधन करना चाहिए। (इसके परिणाम स्वरूप) परावर अर्थात् ब्रह्म के सायुज्यत्व को प्राप्त कर लेने पर सभी क्रियाओं से निवृत्ति (मोक्ष की प्राप्ति) होती है ॥९-१५॥
ॐ कार से देवों की उत्पत्ति, ॐकार से स्वर की उत्पत्ति और ॐ कार से ही त्रिलोक के सभी स्थावरजंगम की उत्पत्ति हुई है॥१६॥
ॐ का ह्रस्व अंश पापों का दहन करता है, दीर्घ अंश अमृतत्वरूप अक्षय सम्पदा को प्रदान करता है तथा अर्द्धमात्रा से युक्त प्रणव मोक्षदायक है॥१७॥
तेल की अजस्र धारा की तरह, घण्टा के लम्बे निनाद के समान प्रणव के आगे ध्वनिरहित शब्द होता है, उसका ज्ञाता ही वेदवेत्ता है॥१८॥
हृदयकमल की कर्णिका के मध्य स्थिर ज्योतिशिखा के समान अंगुष्ठमात्र आकार के नित्य ॐकार रूप परमात्मा का ध्यान करे॥१९॥
इड़ा (बायीं नासिका) से वायु को भरकर उदर में स्थापित करे और देह के बीच में ज्योतिर्मय ॐ कार का ध्यान करे। पूरक, कुम्भक और रेचक को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र कहा गया है, ये प्राणायाम के देवता कहलाते हैं॥२०-२१॥
अन्त:करण और प्रणवाक्षर को नीचे और ऊपर की अरणिरूप बनाकर मंथनरूप ध्यान के अभ्यास से अग्नि की भाँति व्याप्त गूढ़तत्त्व (परमात्मा) का साक्षात्कार करे॥२२॥
प्रणव ध्वनि का, नाद सहित रेचक वायु के विलय हो जाने तक अपनी सामर्थ्यानुसार (तब तक) ध्यान करे, जब तक नाद का भली प्रकार लय नहीं हो जाता॥२३॥
गमन और आगमन में विद्यमान तथा गमनादि से रहित, करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सभी मनुष्यों के अन्त:करण में विराजमान हंसात्मक प्रणव का जो दर्शन करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं॥२४॥
जो मन त्रिगुणमय संसार के सृजन, पालन और संहार का कारण है, उसके विलय हो जाने पर विष्णु के परमपद की प्राप्ति होती है। अष्टदल और बत्तीस पंखुड़ियों से युक्त जो हृदयकमल है, उसके बीच सूर्य और सूर्य के बीच चन्द्रमा विद्यमान है॥२५-२६॥
चन्द्रमा के बीच अग्नि और अग्नि के बीच दीप्ति स्थित है। उसके बीच नानाविध रत्नों से सुसज्जित पीठस्थान है। उस पीठ के बीच निरञ्जन प्रभु वासुदेव विराजमान हैं, जो श्रीवत्स, कौस्तुभमणि एवं मणिमुक्ताओं से विशेष रूप से सुशोभित हैं। शुद्ध स्फटिक के सदृश करोड़ों चन्द्रमा की कान्ति वाले महाविष्णु का विनयान्वित होकर ध्यान करे॥२७-२९॥
पूरक द्वारा साँस अन्दर खींचते समय नाभिस्थान में प्रतिष्ठित अतसी पुष्प के समान चतुर्भुज महाविष्णु भगवान् का ध्यान करना चाहिए॥ कुम्भक द्वारा साँस भीतर रोकने के समय हृदय स्थल में कमल के आसन पर सुशोभित लालिमामय गौर वर्ण वाले चतुर्मुख पितामह ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए॥३०-३१॥
रेचक से साँस छोड़ते हुए ललाट में शुद्ध स्फटिक के सदृश श्वेत रंग के त्रिनेत्रयुक्त, निष्कल(कलारहित) , पाप संहारक भगवान् शिव का ध्यान करना चाहिए॥ नीचे की ओर पुष्पित हुआ, ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग की ओर मुख किये हुए कदली पुष्प की तरह हृदयकमल में सभी वेदों के आधारभूत भगवान् शिव अवस्थित हैं॥ सौ अरे वाले, सौ पत्ते वाले और विकसित पंखुड़ियों से युक्त हदय पद्म में सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का एक के बाद दूसरे का क्रमशः ध्यान करना चाहिए॥ सूर्य, चन्द्र और अग्नि के बोध हेतु सर्वप्रथम हृदयकमल के विकसित होने का ध्यान करे। तत्पश्चात् हृदय कमल में स्थित बीजाक्षरों को ग्रहण करके ही अचल चेतनावस्था की प्राप्ति होती है॥३२-३५॥
तीन स्थान, तीन मार्ग, त्रिविध ब्रह्म, त्रयाक्षर, त्रिमात्रा तथा अर्द्धमात्रा में जो परमात्मा स्थित है, उसके ज्ञाता ही वेद के तात्पर्य के ज्ञाता हैं॥३६॥
दीर्घ घण्टा निनाद के सदृश, तेल की अविच्छिन्न धारा की तरह तथा बिन्दु-नाद और कला से अतीत उस परम तत्त्व (ॐकार) को जो जानता है, वही वेदज्ञ है॥३७॥
जिस प्रकार मनुष्य कमलनाल से जल को धीरे-धीरे खींचते हैं, उसी प्रकार योगी योगस्थ होकर प्राणायाम द्वारा वायु को धीरे-धीरे ऊर्ध्व भूमिका में ले जाए॥३८॥
प्रणव की अर्द्धमात्रा (अव्यक्त नाद उच्चारण) को रस्सी बनाकर हृदयकमल रूपी कूप नाल (सुषुम्ना) मार्ग द्वारा जलरूपा कुण्डलिनी को भौंहों के मध्य में लय करे॥३९॥
नासिका के मूल से लेकर भौंहों के बीच में जो ललाट स्थान है, वहाँ तक अमृत स्थान जानना चाहिए, वही ब्रह्म का महान् निवास स्थान है॥४०॥
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये छ: योग के अङ्ग कहे गये हैं॥४१॥
विश्व में जितनी जीव प्रजातियाँ हैं, उतनी ही आसनों की विधियाँ भी बतायी गई हैं, इस प्रकार के असंख्य भेदों के ज्ञाता भगवान् शंकर हैं॥४२॥
सिद्ध, भद्र, सिंह और पद्म ये चार प्रमुख आसन हैं, पहला चक्र आधार (मूलाधार) और दूसरा स्वाधिष्ठान है॥४३॥
इन दोनों के बीच में कामरूप प्रजनन स्थान है। गुदा स्थान के आधारचक्र में चतुर्दल कमल विद्यमान है। उसके बीच काम नाम से प्रख्यात प्रजनन-योनि (कुण्डलिनी शक्ति) है, जिसकी अभ्यर्थना सिद्धजन करते हैं। प्रजनन योनि के बीच पश्चिम की ओर पुरुष जननेन्द्रिय लिङ्ग है॥ मस्तक में मणि की तरह जो प्रकाश है, उसे जो जानता है वह योगवेत्ता है। तपे हुए सोने के समान वर्णवाला और तडित् की धारा की तरह विशेष प्रकाशित, अग्निमण्डल से चार अंगुल ऊपर और मेढ़ (मूत्रेन्द्रिय) से नीचे स्वसंज्ञक प्राण विद्यमान है, उसके आश्रय में स्वाधिष्ठान है॥४४-४७॥
उसके बाद स्थित स्वाधिष्ठान चक्र को मेढ़ ही कहा जाता है। जहाँ मणि के प्रकाश की तरह वायु से पूर्ण शरीर है। नाभिमण्डल में स्थित चक्र को मणिपूरक कहा गया है। वहाँ बारह दल से युक्त महाचक्र में पुण्य और पाप का नियन्त्रण रहता है॥ इस तत्त्वज्ञान को न समझ पाने तक जीवात्मा को भ्रमजाल में ही फैंसे रहना पड़ता है। मेद्र स्थान से ऊपर और नाभि से नीचे पक्षी के अण्डे की तरह कन्द का स्थान है। उसी स्थान से बहत्तर हजार नाड़ियाँ उत्पन्न होती हैं, उन हजारों नाड़ियों में बहत्तर नाड़ियाँ प्रमुख हैं॥४८-५१॥
इनमें से दस प्रमुख नाड़ियाँ प्राण का संचार करने वाली हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुसा, कुहू तथा शंखिनी॥५२-५३॥
इस नाड़ी चक्र की जानकारी योग-साधकों को होना आवश्यक है। सतत प्राण का संचार करने वाली इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ सूर्य, चन्द्र और अग्नि देवों से युक्त हैं। इड़ा नाड़ी बायीं ओर, पिङ्गला दाहिनी ओर तथा सुषुम्ना इन दोनों के बीच विद्यमान है, ये तीनों नाड़ियाँ प्राण के संचरण-मार्ग-रूपा हैं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय ये दस प्राण हैं, प्राणादि पाँच प्राण प्रख्यात हैं तथा नागादि पाँच उपप्राण कहे गये हैं॥५४-५७॥
इन हजारों नाड़ियों में प्राण जीवरूप से वास करते हैं। प्राण और अपान के वशीभूत होकर जीव ऊपरनीचे आवागमन करता रहता है॥५८॥
प्राण कभी दायें तो कभी बायें मार्ग से गमन करता है, परन्तु चञ्चल प्रकृति का होने से देखने में नहीं आता। हाथों से फेंकी हुई गेंद जैसे इधर-उधर दौड़ती है, उसी प्रकार प्राण और अपान द्वारा भली प्रकार फेंकने से जीव को कभी आराम नहीं मिल पाता। अपान और प्राण की एक दूसरे को खींचने की प्रक्रिया उसी प्रकार की है, जैसे रस्सी में आबद्ध पक्षी अपनी ओर खींच लिया जाता है। इस तत्त्व के ज्ञाता को ही योगी कहा जा सकता है। 'ह' कार ध्वनि से प्राण बाहर जाता है और 'स' कार से पुनः अन्दर प्रवेश करता है। 'हंस' 'हंस' इस प्रकार का मन्त्र जप जीव हमेशा जपता रहता है। इस अजपा-जप की संख्या दिन-रात में इक्कीस हजार छः सौ होती है। इतनी संख्या में मन्त्र जीव हमेशा जपता है। जो योगियों के लिए मोक्ष प्रदान करने वाली है, यही अजपा गायत्री कहलाती है॥५९-६३॥
इस (अजपा गायत्री) के संकल्प मात्र से व्यक्ति पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। जिस मार्ग से योग साधक सुगमता से ब्रह्मपद को प्राप्त करता है। जिसके सदृश न कोई विद्या है, न जप है और न ही कोई पुण्य, जो पहले न कभी हुआ है और न आगे कभी हो सकेगा॥ वह्रियोग द्वारा जाग्रत् होने वाली परमेश्वरी (कुण्डलिनी) उस द्वार-पथ को अपने मुँह से आच्छादित करके प्रसुप्त स्थिति में है। वह जाग्रत् किये जाने पर सुषुम्ना मार्ग से मन और प्राण वायु के साथ ऊर्ध्वगमन करती है, जैसे सुई धागे को साथ ले जाती है। योगी मुक्ति द्वार को कुण्डलिनी शक्ति द्वारा उसी प्रकार उद्घाटित करते हैं, जैसे ताली से प्रयासपूर्वक दरवाजे को खोल लिया जाता है॥६४-६८॥
सुदृढ़ रूप में पद्मासन लगाकर, दोनों हाथों को सम्पुटित करके ठोड़ी से वक्षभाग (कण्ठकूप) को दृढ़तापूर्वक दबाकर, चित्त में स्वरूप का ध्यान करते हुए बार-बार अपान वायु को ऊपर की ओर चलायमान करता हुआ और अन्दर खींची हुई प्राण वायु को नीचे छोड़ता हुआ योग साधक अतुलित कुण्डलिनी शक्ति के सामर्थ्य बोध. को प्राप्त करता है॥६९॥
जो योगसाधक पद्मासन में बैठकर नाड़ीद्वार से प्राणवायु को खींचकर, कुम्भक द्वारा उसे रोकता है। वह सुनिश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है, इसमें संदेह की गुंजायश नहीं॥७०॥
(प्राणायाम के) परिश्रम द्वारा जो स्वेदकण निकले, उन्हें अङ्गों में ही मल ले। कटु, अम्ल और नमक का परित्याग करके दुग्ध का सेवन करने वाला सुखी रहता है। इस प्रकार योगस्थ होकर अल्प आहार करने वाला ब्रह्मचारी योगी एक साल के अन्तराल में ही सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं॥७१-७२॥
ध्यानबिन्दूपनिषद् कन्द के ऊपरी भाग में स्थित कुण्डलिनी शक्ति से योग साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। सतत मूलबन्ध का अभ्यास करने से अपान और प्राण में एकीकरण होता है, मल-मूत्र के क्षीण हो जाने पर बूढ़ा व्यक्ति भी जवान हो जाता है। एड़ी भाग से योनिस्थान को दबाकर मलद्वार को संकुचित करे और अपान वायु को ऊर्ध्व की ओर खींचे, इस क्रिया को मूलबन्ध कहा गया है। उड्डियानबन्ध की विधि में कहा गया है कि जिस प्रकार बिना थका महापक्षी उड़ने की क्रिया करता है, उसी प्रकार पेट की पश्चिम 'ताण' क्रिया (पेट को पीछे की ओर सिकोड़ने) के साथ नाभि को ऊपर की ओर खींचना चाहिए ॥ ७३-७६॥
यह उड्डियान बन्ध मृत्यु के निमित्त उसी तरह है, जैसे गजराज के लिए सिंह निमित्त बनता है। जिसमें शिरोनभ (आकाश) से उत्पादित जल को नीचे आने की अपेक्षा ऊपर ही अवरुद्ध कर लिया जाता है, उसे जालन्धर बन्ध कहा गया है। इससे कर्मबन्धन और पापजन्य दु:खों का नाश होता है। जालन्धर बन्ध करते समय कण्ठ को सिकोड़ा जाता है, जिससे वायु की गति रुक जाती है और अमृत के अग्नि में गिरने की सम्भावना नहीं रहती। खेचरी मुद्रा उसे कहते हैं, जिसमें जिह्वा को उल्टाकर कपाल कुहर में प्रविष्ट किया जाए और अपनी दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच स्थिर रखा जाए। इसके सिद्ध हो जाने से निद्रा, क्षुधा, पिपासा नहीं सताती और न व्याधि एवं मृत्यु का भय ही रहता है॥७७-८०॥
जो खेचरी मुद्रा का ज्ञाता है, उसे न तो मूच्र्छा होती है, न रोग उसे कष्ट देते हैं और न ही वह कर्मों से ही लिप्त हो पाता है। खेचरी मुद्रा से जिसका चित्त आकाश में विचरण करने लगता है और जिसकी जिह्वा भी अन्तरिक्षगामिनी हो जाती है, ऐसा साधक काल के बन्धन से बँधता नहीं है। इसलिए यह 'खेचरी मुद्रा’ योगियों द्वारा प्रशंसनीय है। इस मुद्रा द्वारा जिसने तालु के छिद्र को अवरुद्ध कर दिया है, उसके द्वारा स्त्री समागम से भी वीर्य का क्षरण नहीं होता और जब तक वीर्य शरीर में विद्यमान रहता है, तब तक मौत के भय की सम्भावना ही कैसी?॥८१-८४॥
खेचरी मुद्रा में रहते हुए वीर्य का क्षरण सम्भव नहीं, फिर भी किसी तरह यदि वीर्य स्खलित होकर योनि में चला जाए, तो उसे हठशक्तिपूर्वक योनिमण्डल से पुनः ऊपर की ओर खींच लेते हैं। वह वीर्य भी सफेद और रक्त वर्ण दोनों तरह का होता है। सफेद वर्ण वाले को शुक्र और रक्त वार्ण वाले को महारज कहा गया है। मुँगे की तरह वर्ण वाला रज (योगी के) योनिस्थान में विद्यमान है और शुक्ल वीर्य चन्द्रस्थान में है, पर इन दोनों के एक होने की सम्भावना बड़ी दुर्लभ है। वीर्य को शिवरूप और रज को शक्तिरूप कहा गया है, वीर्य ही चन्द्रमा और रज ही सूर्य है॥८५-८८॥
इन दोनों के संयुक्त होने पर परम देह की प्राप्ति होती है। वायु को शक्ति से संचालित किये जाने से रज अन्तरिक्ष की ओर प्रेरित होता है और सूर्य से संयुक्त होकर दिव्य शरीर को प्राप्त करता है। शुक्लवर्ण वीर्य चन्द्रमा से और रज सूर्य से युक्त है। इन दोनों की समरसता का जो ज्ञाता है, वही योगवेत्ता है। नाड़ियों में स्थित मल के शोधन के लिए सूर्य और चन्द्र के संयोगत्व और वात, पित्त, कफ आदि रसों के भली प्रकार शोषण किये जाने को महामुद्रा कहा गया है। वक्षस्थल को ठोड़ी से और बायीं एड़ी से योनिस्थल को दबाकर, प्रसारित दाहिने पैर को हाथों से पकड़कर कुक्षियुगल को श्वास से भरकर, कुम्भक करने के बाद धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकाले। इसे योगियों द्वारा सर्वपापनाशिनी महामुद्रा कहा गया है॥८९-९३॥
अब आत्मा के सम्बन्ध में विवेचन करते हैं-हृदय स्थल में आठ दल का कमल है, उसके बीच रेखा वलय बनाकर जीवात्मा ज्योतिरूप होकर अणुमात्र स्वरूप में निवास करता है। वह सर्वज्ञाता, सब कुछ करने वाला है और सब कुछ उसी में प्रतिष्ठित है। उसका ऐसा विचार है कि सभी चरित्रों का मैं ही कर्ता, भोक्ता, सुखी, दु:खी, काना, लँगड़ा, बहरा, गूंगा, दुबला और मोटा हूँ; इस प्रकार का उसका स्वतन्त्र व्यवहार रहता है॥ उसे अष्टदल कमल का पूर्वदिशा वाला दल सफेद रंग का है, उस दल में रहते हुए धर्म और भक्तिभाव में मति (श्रद्धा) रहती है॥ जब आग्नेय दिशा के लाल रंग के दल में निवास होता है, तब मति निद्रा और आलस्य से युक्त हो जाती है॥ जब दक्षिण दिशा के काले रंग के दल में निवास होता है, तब द्वेषभाव और क्रोधी स्वभाव की मति रहती है॥ ध्यानबिन्दूपनिषद् नैऋत्य दिशा के नीले रंग वाले दल में निवास करने पर पाप कर्मों और हिंसक वृत्ति वाली मति रहती है॥ जब स्फटिक वर्ण वाले पश्चिम दल में निवास रहता है, तब क्रीड़ा और विनोद में अभिरुचि उत्पन्न हो जाती है। वायव्यकोण के माणिक्य वर्ण वाले दल में निवास होने पर घूमने-फिरने और वैराग्य भाव की ओर झुकाव होता है॥, ॥ जब उत्तर के पीले रंग के दल में निवास करता है, तो सुख-साधन और सजने-सँवरने में अभिरुचि रहती हैं॥ ईशान कोण के वैडूर्यमणि-रंग के दल में रहने पर दान-पुण्य और अनुग्रह करने में अभिरुचि जागती है॥ जब जोड़ों के सन्धिभाग में मति वास करती है, तब वात, पित्त, कफ से सम्बन्धित बड़ी बीमारियों का प्रकोप होता है॥ जब मति मध्य में रहती है, ऐसे में सब कुछ जानने, गाने, नाचने, पढ़ने और आनन्द मनाने में ध्यान रहता है॥ जब आँख श्रमशील रहती है, तो उसे विश्राम देने के उद्देश्य से पहली रेखा का आश्रय लेकर बीच में निमज्जन करती है। वह प्रथम रेखा बन्धूक पुष्प के वर्ण वाली होती है, जिससे निद्रावस्था की प्राप्ति होती है। निद्रावस्था के बीच में ही स्वप्नावस्था रहती है। स्वप्नावस्था के बीच में देखी गई, सुनी हुई और अनुमान की हुई सम्भावित बातों की कल्पना करने से जो श्रम करना पड़ता है॥ उस श्रम के निवारणार्थ द्वितीय रेखा वलय में डुबकी लगाती है। वह दूसरी रेखा वीर-बहूटी के वर्ण की है, जिससे सुषुप्ति अवस्था होती है। इस सुषुप्तावस्था में बुद्धि मात्र परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इसके पश्चात् ही परमेश्वर की प्राप्ति सम्भव है॥ तृतीय रेखा वलय बनाकर जब पद्मराग वर्ण वाली रेखा में निमज्जन किया जाता है, तब तुरीयावस्था प्राप्त होती है। इसमें बुद्धि मात्र परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इस अवस्था में बुद्धि को धीरे-धीरे सबसे पृथक् करते हुए धैर्यपूर्वक मन को आत्म-केन्द्रित करके अन्य कुछ भी विचार ने करे॥ तब प्राण और अपान में एकीकरण करके सम्पूर्ण जगत् को आत्मस्वरूप मानते हुए लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करे। तुरीयातीतावस्था प्राप्त होने पर द्वन्द्वभाव मिटते ही सभी कुछ आनन्दस्वरूप लगने लगता है। जब तक जीव में देहधारणा रहती है, तभी तक वह उसमें निवास करता है, बाद में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होती है, इसी मार्ग से मोक्ष और आत्मदर्शन दोनों की प्राप्ति सम्भव है॥ चारों मार्ग से संयुक्त महाद्वार की ओर गमन करने वाले वायु के साथ स्थिर होने पर अर्द्ध त्रिकोण में जाकर परमात्मा का साक्षात्कार होता है॥९४॥
पूर्व में कथित त्रिकोण स्थान से ऊपर पृथ्वी आदि पाँच रंग वाले तत्त्व ध्यान के योग्य हैं। इसके साथ बीज, वर्ण और स्थानयुक्त प्राणादि पाँच वायु ध्यान के योग्य हैं। 'य'कार जो नीले बादलों के समान है, वह प्राण का बीज है। 'र' कार आदित्यरूप वर्ण अग्निरूप अपान का बीज है॥९५॥
'ल' कार बन्धूक पुष्प के रंग वाला पृथ्वीरूप व्यान का बीज है। शंख के रंग वाला 'व' कार जीवरूप उदान को बीज है॥९६॥
'ह' कार स्फटिक प्रभायुक्त आकाश रूप 'समान' का बीज है। हृदय, नाभि, नासिका, कान तथा पैर का अंगुष्ठ-ये समान प्राण के स्थान हैं॥ यह समान बहत्तर हजार नाड़ियों तथा शरीर के अट्ठाईस करोड़ रोम कूपों में रहता है॥ समान और प्राण भिन्न-भिन्न नहीं, अपितु एक हैं, दोनों एक ही जीव हैं। चित्त को दृढ़ता से समाहित कर पूरक, कुम्भक, रेचक तीनों क्रियायें सम्पन्न करे। हृदयकमल के कोटर में धीरे-धीरे सबको आकर्षित करके, प्राणवायु और अपान को अवरुद्ध करते हुए प्रणव (ॐकार) का उच्चारण करे॥ कण्ठ का संकोचन करके लिङ्ग का संकोचन करे, तत्पश्चात् मूलाधार से पद्मतन्तु की तरह प्रकट होने वाली सुषुम्ना नाड़ी का संकोचन करे॥ सुषुम्ना के आश्रित वीणा-दण्ड से उठने वाला अमूर्त नाद सुनाई पड़ता है, जैसे शंखनाद आदि के मध्य (अमूर्त ध्वनि) सुनाई पड़ता है॥९७-१०२॥
व्योमरन्ध्र (आकाशरन्ध्र) से गमन करने वाला नाद मोर (पक्षी की) ध्वनि के समान रहता है, कपाल कुहर के मध्य चार द्वारों वाला बीच का स्थान है। व्योम में सूर्य के सुशोभित होने के समान ही आत्मा यहाँ प्रतिष्ठित है और ब्रह्म प्राप्ति के स्थान पर ब्रह्मरन्ध्र में कोदण्ड (धनुष) द्वय के बीच शक्ति स्थित है। जहाँ मन को तल्लीन करके अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, वहीं रत्नों से ज्योतिष्मान् नादबिन्दु महेश का स्थान है। जो पुरुष इसका ज्ञाता है, वह कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥१०३-१०५॥

तुरीयातीतवधूत उपनिषद - अद्वैतवाद
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तुरीयातीतवधूत उपनिषद
समस्त लोकों के पितामह ब्रह्मा ने अपने पिता आदिनारायण के निकट जाकर उनसे पूछा-भगवन् तुरीयातीत अवधूत का मार्ग कौन सा है और उसकी कैसी स्थिति होती है? भगवान् नारायण ने उनसे कहा-अवधूत पथ पर चलने वाले इस लोक में दुर्लभ हैं, वे बहुत नहीं होते, यदि एकाध होता भी है, तो वह नित्य पवित्र, वैराग्य मूर्ति, ज्ञानाकार और वेद पुरुष होता है, ऐसा विद्वज्जन मानते हैं। ऐसा महापुरुष अपने चित्त को मुझ में अवस्थित रखता है और मैं उसी में स्थित होता हूँ। वह प्रारम्भ में कुटीचक होता है, तत्पश्चात् बहूदकत्व प्राप्त करके हंसत्व का अवलम्बन लेता है। हंस होकर फिर परमहंस बनता है। वह निजस्वरूप के अनुसन्धान द्वारा समस्त प्रपञ्चों के रहस्य को जानकर, दण्ड, कमण्डलु, कटिसूत्र, कौपीन, आच्छादन वस्त्र और विधिपूर्वक की जाने वाली नित्य क्रियाओं को जल में विसर्जित कर देता है और दिगम्बर होकर जीर्ण वल्कल और अजिन (मृग) चर्म के भी परिग्रह को छोड़कर समस्त प्रकार का निषेध करके (अमन्त्रवत् होकर), क्षौर कर्म (केश-कर्तन-दाढ़ी बाल आदि बनवाने), अभ्यङ्ग स्नान (उबटन लगाकर स्नान करने) तथा ऊर्ध्व पुण्डू (मस्तक पर तिलक) लगाने को भी छोड़कर, वैदिक और लौकिक कर्मों का उपसंहार करके, सर्वत्र पुण्य और अपुण्य को भी त्याग कर ज्ञान और अज्ञान को भी छोड़ देता है। वह शीत-उष्ण (सर्दी-गर्मी), सुख-दुःख, मान-अपमान को भी जीत लेता है। वह शरीर की तीनों वासनाओं सहित निन्दा-अनिन्दा, गर्व, मत्सर, दम्भ, दर्प,इच्छा, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष, अमर्ष, असूया और आत्म संरक्षण आदि को (भावाग्नि में) जलाकर, अपनी काया को मुर्दे की तरह देखता हुआ, प्रयत्न और नियम के बिना लाभ और हानि को समान करके, गोवृत्ति से (गौ की तरह) जो कुछ मिल गया, उसी में सन्तोष करके प्राण धारण किए रहता है। वह सब प्रकार से लालचरहित होकर समस्त विद्याओं और पाण्डित्य को भस्मीभूत करके, अपने वास्तविक स्वरूप को छिपाते हुए, छोटे-बड़े के भाव को (बाह्य व्यवहार में) पूर्ववत् (अज्ञानी के समान) बनाये रखता है। सर्वोत्कृष्ट सर्वात्मक रूप अद्वैत की कल्पना करके उसका यह मानना होता है कि मेरे अतिरिक्त कुछ और नहीं है। वह देव रहस्य (गुह्य) आदि धन को अपने अन्दर समेट करके (अर्थात् देव रहस्यों को अपने में गोपनीय करके) ने दुःख में उद्विग्न होता है और न सुख में प्रसन्न होता है। वह राग में स्पृहा नहीं रखता और न शुभ-अशुभ किसी बात से स्नेह रखता है। उसकी समस्त इन्द्रिय उपराम को प्राप्त हो जाती हैं। वह अपने पूर्व के आश्रम, विद्या, धर्म, प्रभाव का स्मरण नहीं करता और वर्णाश्रम आचार का परित्याग कर देता है। दिन और रात के प्रति समान भाव रखने के कारण वह कभी सोता नहीं (अर्थात् सदैव जाग्रत् रहकर सावधान रहता है)। वह सतत सर्वत्र विचरणशील रहता है। उसका शरीर मात्र अवशिष्ट रहता है (अर्थात् वह सदैव ब्रह्मरूप होकर शरीर में रहता है और शरीर द्वारा व्यवहार करता है)। जलस्थल (सरोवर-कूप आदि) उसका कमण्डलु होता है। वह सदा अनुन्मत्त रहता है, किन्तु बाहर से बालक,उन्मत्त और पिशाच आदि के समान एकाकी विचरण करता हुआ किसी से सम्भाषण नहीं करता और अपने वास्तविक रूप के ध्यान द्वारा निरालम्ब का अवलम्बन लेकर अपनी आत्मनिष्ठा की अनुकूलता से (अर्थात् आत्मनिष्ठ होकर) सब को भुला देता है। इस प्रकार से जो तुरीयातीत अवधूत के वेश वाला सतत अद्वैत निष्ठा परायण होकर 'प्रणव' भाव में निमग्न होकर शरीर का परित्याग करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, यही इस उपनिषद् का प्रतिपादन है॥
Sunday, 12 January 2025
ध्यान (मेडीटेशन) आणि त्याचे फायदे...
अपूर्ण निद्रा आणि मानसिक तणाव
म्हणजेच दिवसभराच्या श्रमाचे परिमार्जन करण्यासाठी निद्रा आणि मानसिक संतुलना व स्थिरतेसाठी निद्रा व त्यातील स्वप्ने आवश्यक आहेत. परंतु कित्येक व्यक्तींना त्यांच्या स्वभावामुळे अथवा कामाच्या प्रकारामुळे पडणाऱ्या ताणाचा, निव्वळ झोपेमुळे निचरा होऊ शकत नाही. मानसिक तणावामुळे झोप येत नाही आणि अपूर्ण झोपेमुळे तणाव वाढतो असे हे रहाटगाडगे चालूच राहते व त्याचा परिणाम प्रकृती बिघडण्यात होतो. जागृतावस्था, निद्रा आणि निद्रेतील स्वप्न पडणारा काळ या व्यतिरिक्त मानसिक तणाव कमी करणारा ४था प्रकार कोणता या प्रश्नाचे उत्तर म्हणून शास्त्रज्ञांनी ध्यान अथवा मेडीटेशन कडे बोट दाखवले आहे.
मेडीटेशन किती वेळ करावे
वैद्यकीयशाखेच्या विद्यार्थ्यांसमोर Transcendental Meditation (TM) वर भाषण करीत असताना एका विद्यार्थ्याच्या ‘आमची व्यवसायाची सुरवात झाल्यावर आम्हास रोजची १५ मिनिटे मेडीटेशनसाठी देण्यास वेळ कुठून असणार’ या खोचक प्रश्नाचे स्वामी महेश योगी यांनी दिलेले उत्तर मोठे मार्मिक होते. स्वामी म्हणाले कि धनुष्याला बाण लावल्यावर प्रत्यंच्या जी मागे खेचली जाते ती तो बाण ज्यास्तीत ज्यास्त पुढे पाठविण्यासाठी. त्याच प्रमाणे TM साठी दिलेली रोजची १० ते १५ मिनिटे आपणास ज्यास्त कार्यक्षम बनवतील.
मेडीटेशन केल्याने होणारे फायदे
मेडीटेशन करण्यासाठी आपणास बैठकीची सहज स्थीती धारण करता आली पाहिजे. ‘स्थिर सुखमासनम’ म्हटल्यावर भगवान पतंजली यांची प्रतिमा डोळ्यासमोर उभी रहाते व योगाभ्यास नजरेसमोर उभा राहतो. प्रत्येक आसनात भेदात्मक शिथीलतेचे (Differential Relaxation) तंत्र आत्मसात केल्यामुळे अंशात्मक मेडीटेशन होतेच. परंतु ‘आम्ही नियमित मेडीटेशन करतो’ असे सांगणाऱ्या व्यक्ती क्वचितच भेटतात. मेडीटेशन केल्याने फायदा होतो हे निर्विवाद सत्य आहे. मेडीटेशन केल्याने मानवी शरीरावर होणाऱ्या परिणामांची छाननी शास्त्रोक्त पदधतीने, आधुनिक विज्ञानाच्या सहाय्याने झाली आहे. उदाहरणार्थ नियमित ध्यान करणाऱ्या व्यक्तीच्या हृदयाची स्पंदने, रक्तदाब, श्वासाची गती आणि लय, मेटाबोलिक रेट इत्यादी मेडीटेशन न करणाऱ्यापेक्ष्या कमी असतात. अश्या प्रकारच्या संशोधनावर आधारीत निबंध ‘लांसेट’ व ‘सायंटीफिक अमेरिकन’ या सारख्या दर्जेदार शास्त्रीय संशोधन प्रसिद्ध करणाऱ्या मासिकात प्रसिद्ध झाला आहे. सध्या मेडीटेशन वर खूप संशोधन सुद्धा चालू आहे.
अर्थात अश्या प्रकारच्या बदलामुळे आपला काय फायदा होतो हा प्रश्न येतोच. मेडीटेशन पासून मिळणारे फायदे अनेक आहेत. मेडीटेशनचा अभ्यास नियमित केल्यास अशी व्यक्ती मानसिक दृष्ट्या अधिक सक्षम होते व त्यामुळे सिगारेट व दारू या सारख्या व्यसनापासून मुक्ती मिळण्यास मदत होते अथवा या व्यसनांची तीव्रता कमी करण्यास मदत होते. मानसिक तणाव कमी झाल्यामुळे मनोकायिक रोगांचा प्रतिकार करण्याची क्षमता वाढते. अस्थमा, अल्सर यासारख्या व्याधींवर मेडीटेशनचा सुपरिणाम पहावयास मिळतो.
विद्यार्थ्यांमध्ये स्मरणशक्ती सुधारते व त्यामुळे अभ्यासातील गती वाढते. विषयाचे नीट आकलन झाल्यामुळे वरिष्ठ अधिकारी व्यक्तींच्या नोकरीतील कामाचा दर्जा उंचावतो आणि काम समाधानपूर्वक होते असे पाहण्यात आले आहे. या सर्व गोष्टी तौलनिक दृष्टीने अभ्यास करून गणिती (Statistics) पद्धतीने सिद्ध करण्यात आल्या आहेत. प्रत्यक्षात मेडीटेशन म्हणजे काय व ते कसे केले जाते ते आपण पुढे पाहू.
Friday, 7 July 2023
We Are Hiring RN- Medical Surgeon | Location : New York (USA)
We Are Hiring RN- Medical Surgeon Assessing, planning, implementing, and evaluating patient care plans in consultation with healthcare professionals
The following experience is required: 2 years of radiology experience IV insertion and phlebotomy skill conscious sedation experience
Friday, 8 April 2022
6 Tips for Picking The Perfect Adwords Keyword
Google Adwords is a program where advertisers bid on certain keywords, and when someone searches for those keywords, the ad that the advertiser bids on pops up. It's important to pick the right keyword because once you set it, you can't make any changes. There are many considerations that go into picking the perfect keyword, such as deciding what your budget is and picking an appropriate long-tail keyword. Bullet Point: Advertising Paragraph: Advertising is all about creating a conversation between a product and a person or company who wants to buy said product. There are many different types of advertising available, including traditional commercials, websites with advertisements called adsense, social media ads like Facebook and Twitter, as well as ads in other places like newspapers and magazines. The best way to decide what type of advertising will work best for you is by asking yourself questions such as how much money you have to spend and how much time you have.
Sunday, 14 February 2021
संत एकनाथ महाराज जीवनी (1533-1599)
संत एकनाथ महाराज, संत ज्ञानेश्वर और संत नामदेव के काम के लिए आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले, महाराष्ट्र के एक महान संत थे। संत एकनाथ को उनकी आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ लोगों को जगाने और धर्म की रक्षा के लिए उनके अपार प्रयासों के लिए जाना जाता था। संत एकनाथ ने भक्ति और अध्यात्म पर कई भजनों और पुस्तकों के लेखक, प्रसिद्ध एकनाथ भागवत, भगवद गीता के आध्यात्मिक सार और उनके मैग्नम ओपर्स भवरथ रामायण को शामिल किया है।
जन्म का उद्देश्य : महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर और संत नामदेव के समय, देवगिरि राजा श्री रामदेवराय यादव के अधीन एक समृद्ध और संतुष्ट राज्य था। दुर्भाग्य से राजा की मृत्यु के बाद देवगिरि मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों में गिर गया। संत ज्ञानेश्वर और संत नामदेव द्वारा शुरू किया गया सुधारवादी और उत्थान कार्य बंद हो गया। युद्ध और विदेशी आक्रमणों ने लोगों के जीवन में भारी तबाही मचाई थी। लोग लक्ष्यहीन थे और आक्रमणकारियों के दास होने के नशे में इस्तीफा दे दिया। लगभग 200 वर्षों तक, यह जनता, राष्ट्र और धर्म की स्थिति थी, जब तक कि एक उज्ज्वल आत्मा ने जनता को जगाने के लिए जन्म नहीं लिया।
5 साल के एकनाथ गुरु की तलाश के लिए घर से निकलते हैं : छोटा एकनाथ गुरुचरित्र के महत्व से प्रभावित था। वह लगातार दूसरों से पूछ रहा था कि वह अपने गुरु से कैसे मिल सकता है। उसके आस-पास के विद्वान लोग चकरा गए और उसे गोदावरी नदी के बारे में पूछने के लिए कहा। इसलिए अगले दिन छोटे एकनाथ नदी में गए और बड़ी ही शिद्दत और तत्परता के साथ अपना प्रश्न पूछा। और असीम करुणामयी माँ ने उत्तर दिया! ‘आपका गुरु दौलताबाद के किले में इंतजार कर रहा है, थोड़ा एकनाथ को बताया गया था। वह तुरंत दौलताबाद के लिए घर से निकल गया!
गुरु शिष्य से मिलता है : जनार्दन स्वामी दौलताबाद के किले के प्रमुख थे। वह हर गुरुवार को छुट्टी पर जाता था। यह एक सौभाग्यशाली दिन था, जब 5 वर्षीय एकनाथ जो कि किले की सीढ़ियों पर चढ़ रहा था, जनादार स्वामी के सामने आया। जनार्दन स्वामी ने उस लड़के का स्वागत किया जिसका शब्द you मैं आपसे उम्मीद कर रहा हूं ’है। गुरु हमेशा इंतजार करता है और जानता है कि योग्य शिष्य कब आएगा। जनार्दन स्वामी ने पूजा की तैयारी का जिम्मा छोटे एकनाथ को सौंपा, जिन्होंने इसे बड़ी श्रद्धा के साथ निभाया, जिससे गुरु बहुत प्रसन्न हुए। जनार्दन स्वामी ने युवा एकनाथ को लिया
लोगों को जगाने में मदद करने के लिए जगदंबा माता के पास रोना : देवगिरि किला निज़ाम के शासन में था। पास में रहने वाले संत एकनाथ ने देखा कि लोग चुपचाप शासकों की ज्यादतियों का सामना कर रहे थे, जबकि उनके ग़ुलाम होने के भाग्य से इस्तीफ़ा दे दिया गया था। लोग जीवित थे क्योंकि वे पहले से ही मृत नहीं थे! संत एकनाथ ने फैसला किया कि उन्हें लोगों को जगाने के लिए एक जन आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। उन्होंने कुलस्वामिनी जगदंबामाता से लोगों को जगाने के काम को प्रकट करने और आशीर्वाद देने के लिए ईमानदारी से प्रार्थना की।
दया तिचे नाव भूतांचे पालन ।
आणिक निर्दाळण कंटकांचे ।।
अर्थ: लोगों के लिए दया और करुणा |
अन्यायी के प्रति कठोर और उग्र ||
एक घातक दिन, जनार्दन स्वामी समाधि में गहरे थे, जब एक हमलावर सेना ने अलार्म उठाया। एकनाथ महाराज ने संकोच नहीं किया, एक लड़ाका नहीं होने के बावजूद, उसने कवच दान किया और आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए बाहर निकल गया। उनके दिमाग में केवल एक ही विचार था, कि उनके गुरु जनार्दन स्वामी की समाधि अवस्था को परेशान न किया जाए। इसलिए एकनाथ महाराज ने 4 घंटे तक वीरतापूर्वक युद्ध किया और आक्रमणकारियों को भगा दिया।
एकनाथ महाराज की बहादुरी के लिए उनकी सराहना की गई। उन्होंने सिद्ध किया कि गुरु और शिष्य एक हैं! जनार्दन महाराज को इसकी कुछ भी जानकारी नहीं थी। जब स्वामीजी को यह पता चला तो उन्हें अपने शिष्य के लिए तृप्ति का अहसास हुआ। एकनाथ जी महाराज जैसे शिष्य जो गुरु और उनके शिष्य के बीच के अंतर को मिटा सकते हैं और गुरु का काम कर सकते हैं, ऐसा कहना अत्यंत दुर्लभ है।
संत एकनाथ भवार्थ रामायण लिखते हैं : भगवान राम के जीवन का ऐतिहासिक प्रतिपादन एकनाथ महाराज द्वारा 7 खंडों, 297 अध्यायों और लगभग 40000 श्लोक volume ओविस ’नामक एक खंड में लिखा गया था। एकनाथ महाराज ने राम के जीवन के आध्यात्मिक अर्थ को समझाने का प्रयास किया।
'अजा' परब्रह्म या परमात्मा है। इससे दशरथ या 10 इन्द्रिय अंग उत्पन्न हुए। राम के रूप में व्यक्तिगत स्व (आत्म) ने दशरथ के माध्यम से जन्म लिया। भगवान के अवतारों या अवतारों में देवताओं की इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने का प्राथमिक उद्देश्य था। दशरथ ने 3 क्वींस - कौशल्या को लाभकारी ज्ञान (सदविद्या) का प्रतीक, सुमित्रा ने शुद्ध ज्ञान (शुद्धबुद्धि) और कैकयी को अज्ञानता (अविद्या) का प्रतीक माना। कैकयी की नौकरानी मंथरा ने हानिकारक ज्ञान (कुविद्या) का प्रतीक रखा। राम द ब्लिसफुल के 3 भाई थे। लक्ष्मण का अर्थ है आत्म-ज्ञान (आत्मप्रबोध), भारत का अर्थ है भावुक (भावार्थ) और सतरुघ्न का अर्थ है आत्म समर्थन (निज-निर्धार)। तब फिर से विश्वामित्र का अर्थ होता है तर्कशक्ति (विवेक) और वसिष्ठ अर्थ विचारशील (विचार)। बाद के दो राम ने युद्ध की कला के साथ-साथ शास्त्र भी सीखे। राम और सीता भगवान और उनकी बुद्धि का प्रतीक हैं। उनकी एकता निरपेक्ष है। (भारतीय संस्कृति कोश ६, पृष्ठ ५०६)
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वैदिक गणित - The Vedic maths (Sanatan Dharma)
इ॒मा मे॑ऽअग्न॒ऽइष्ट॑का धे॒नवः॑ स॒न्त्वेका॑ च॒ दश॑ च॒ दश॑ च श॒तं च॑ श॒तं च॑ स॒हस्रं॑ च स॒हस्रं॑ चा॒युतं॑ चा॒युतं॑ च नि॒युतं॑ च नि॒युतं॑ च प्र...

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संत एकनाथ महाराज, संत ज्ञानेश्वर और संत नामदेव के काम के लिए आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले, महाराष्ट्र के एक महान संत थे। संत एकना...